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South Indin temples and specifically in Kerala & Tamil Nadu are known for temple elephants and few of those elepahants have become a legend. Today we will tell you the story of one such temple elephant, known as Guruvayur Keshavan.

Gajarajan Guruvayur Keshavan , born in 1904 ( lived till December 2, 1976 ) is the most well-known and celebrated temple elephant in Kerala.

On January 4, 1922, the royal family of Nilambur gifted Guruvayur Keshavan to the Guruvayur Hindu temple.

It is a popular Hindu ritual in Kerala to catch wild elephants as calves or young adults and donate them as an offering to the temple's deity. There are approx 50 elephants at Guruvayur temple at any given point of time. ( exact number is not confirmed ).

More about Guruvayur Keshavan

Keshavan, who stood over 3.2 metres tall, was recognised for his devoted behaviour.

Keshavan died on Guruvayur Ekadasi, on December 2, 1976, at the age of 72.

He fasted for the entire day and knelt in front of the temple, his trunk elevated in a sign of prostration.

Guruvauyur still commemorates his death anniversary. Many elephants form a queue in front of the statue, which is garlanded by the chief elephant.

The Guruvayoor Devaswom bestowed upon Keshavan the unusual title "Gajarajan" (Elephant King).

Guruvayur Padmanabhan succeeded Guruvayur Keshavan after his death.

Early life of Gajarajan Guruvayur Keshavan

Guruvayur Keshavan was kidnapped from the Nilambur forest and brought to the legendary Nilambur Royal family as their 12th elephant.

Valiya Raja of Nilambur once prayed to the Lord to spare his family and possessions from an enemy onslaught, according to Guruvayur legend.

If his request is granted, he has vowed to give one of his many elephants. When his wish was granted, he presented Keshavan to the temple on January 4, 1922.

Many people believe that Keshavan only bent his front legs in front of those who hold Lord's Thidambu, allowing them to climb aboard him, and that all others must climb using his back legs.

He is reported to have never caused bodily injury to anyone and to have been able to elevate his head as high as he could for hours while carrying Thidambu.

Keshavan was also well-known for his success in the Guruvayur Aanyottam (elephant race). According to legend, in the 1930s Aanayottam, Keshavan defeated Akhori Govindan, a famous elephant.

Keshavan was the first elephant to be bestowed with the unique title "Gajarajan" (Elephant King) by the Guruvayur Devaswom in 1973.

Keshavan fell unwell during the Guruvayur Ekadasi in 1976 and was about to quake during the deity procession.

He was promptly transported to the barn and fasted for the night before dying a few days later on December 2, 1976.

He fasted for the entire day and knelt in front of the temple, his trunk elevated in a sign of prostration.

His death anniversary is still celebrated on the evening of every year's Ekadasi !

On this day elephants of Guruvayur Devaswom line up before Keshavan's statue and the chief elephant garlanding the statye , thus paying tribute!

The Guruvayoor Devaswom had erected a life-size statue of Keshavan in its premises as a tribute to the services he rendered to the presiding deity of the temple.

Its tusks, along with a majestic portrait of the elephant, can be still seen adorning the entrance to the main temple enclosure.

Guruvayur Kesavan Movie & televesion serial!

Guruvayur Kesavan, a 1977 Malayalam feature film based on his life, was released the year after his death.

Bharathan directed the film, which starred M. G. Soman, Adoor Bhasi, Sankaradi, Bahadoor, Jayabharathi, Vennira Aadai Nirmala (ushakumari), Veeran, Oduvil Unnikrishnan, junior sheela, M S Nambudiri, N Govindankutty, Paravoor Bharathan, and Manavalan Joseph.

The story of Guruvayoor Kesavan was later adapted by Mr Pradeep Sivasankar as a television serial on Surya TV (2009—2010), starring Captain Raju, KPAC Sajeev, Kaviyoor Ponnamma, Salu Menon, and Kollam Ajith.

Guruvayur Kesavan was played by Gajarajan Thechikottukavu Ramachandran.


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Guruvayur Keshavan – The Majestic temple elephant

श्री संतोषी माता की व्रत कथा - Shri Santoshi Mata Ki Vrat Katha - शुक्रवार की व्रत कथा


श्री संतोषी माता
व्रत करने की विधि - Santoshi Mata Katha vidhi

आइये जानते हैं Santoshi Mata व्रत और कथा की विधि :

इस व्रत को करने वाला कथा कहते वह सुनते समय हाथ में गुड़ व भुने हुए चने रखेा। कथा समाप्त होने पर कथा का गुड़-चना गौ माता को खिलायें।

कलश में रखा हुआ गुड़-चना सब को प्रसाद के रूप में बांट दें। कथा से पहले कलश को जल से भरें। उसके ऊपर गुड़-चने से भरा कटोरा रखें। 

कथा समाप्त होने और आरती होने के बाद कलश के जल को घर में सब जगहों पर छिड़कें और बचा हुआ जल तुलसी की क्यारी में डाल देवें।

सवा आने का गुण चना लेकर माता का व्रत करें। सवा पैसे का ले तो कोई आपत्ति नहीं। गुड़ घर में हो तो ले लेवें, विचार न करें।  क्योंकि माता भावना की भूखी है, कम ज्यादा का कोई विचार नहीं, इसलिए जितना भी बन पड़े अर्पण करें। 

श्रद्धा और प्रेम से प्रसन्न मन हो व्रत करना चाहिए।  व्रत के उद्यापन में अढ़ाई सेर खाजा मोमनदार पूड़ी, खीर, चने का साग नैवेद्य रखें। घी का दीपक जलाकर संतोषी माता की जय जयकार बोलकर नारियल फोड़ें। 

इस दिन घर में कोई खटाई ना खावे और न आप खावें न किसी दूसरे को खाने दें।

इस दिन आठ लड़कों को भोजन करावें। देवर, जेठ, घर के कुटुंब के लड़के मिलते हो तो दूसरों को बुलाना नहीं चाहिए। कुटुंब में ना मिले तो, ब्राह्मणों के, रिश्तेदारों के या पड़ोसियों के लड़के बुलावे।

उन्हें खटाई की कोई वस्तु न दें तथा भोजन कराकर यथाशक्ति दक्षिणा देवें। नगद पैसे ना दें बल्कि कोई वस्तु दक्षिणा में दें।

व्रत करने वाला कथा सुन प्रसाद ले तथा एक ही समय भोजन करे। इस तरह से माता अत्यंत खुश होंगी और दुख, दरिद्रता दूर कर मनोकामना पूरी होगी।

Santoshi Mata Ki Vrat Katha | संतोषी माता की व्रत कथा

श्री Santoshi Mata व्रत की कथा :

एक बुढ़िया थी और उसके सात पुत्र थे। छ: कमाने के वाले थे एक निकम्मा था। बुढ़िया मां छ: पुत्रों की रसोई बनाती, भोजन कराती और पीछे से जो बचता उसे सातवें को दे देती। परंतु वह बहुत भोला था, मन में बुरा नहीं मानता था।

एक दिन अपनी बहू से बोला देखो मेरी माता का मुझ पर कितना प्यार है। वह बोली क्यों नहीं, सब का झूठा बचा हुआ तुमको खिलाती है। वह बोला ऐसा भी कहीं हो सकता है, मैं जब तक अपनी आंखों से न देखूँ  मान नहीं सकता। बहू ने कहा देख लोगे तब तो मानोगे।

कुछ दिन बाद बड़ा त्यौहार आया। घर में सात प्रकार के भोजन और चूरमा के लड्डू बने। वह जांचने को सिर दर्द का बहाना कर पतला कपड़ा सिर पर ओढ़कर रसोई में सो गया और कपड़े में से सब देखता रहा।

छहो भाई भोजन करने आए, उसने देखा मां ने उनके लिए सुंदर-सुंदर आसन बिछाए हैं, सात प्रकार की रसोई परोसी है। वह आग्रह कर उन्हें जिमाती है। वह देखता रहा।

भाई भोजन करके उठे। तब झूठी थालियों में से लड्डुओं के टुकड़ों को उठाया और लड्डू बनाया, जूठन साफ कर बुढ़िया मां ने पुकारा उठ बेटा, छहो भाई भोजन कर गए, अब तू ही बाकी है। उठ न, कब खाएगा।

वह कहने लगा मां मुझे भूख नहीं। भोजन नहीं करना। मैं परदेस जा रहा हूं। माता ने कहा कल जाता हो तो आज ही चला जा। वह बोला हां हां आज ही जा रहा हूं। यह कह कर वह घर से निकल गया।

चलते-चलते बहू की याद आई। वह गौशाला में कंडे थाप रही थी। जाकर बोला मेरे पास तो कुछ नहीं है बस यह अंगूठी है, सो ले लो और अपनी कुछ निशानी मुझे दे दो। वह बोली मेरे पास क्या है, यह गोबर भरा हाथ है। यह कह कर उसके पीठ में गोबर के हाथ की थाप मार दी। वह चल दिया।

चलते-चलते दूर देश में पहुंचा। वहां एक साहूकार की दुकान थी। वही जाकर कहने लगा भाई मुझे नौकरी पर रख लो। साहूकार को जरूरत थी सो वह बोला रह जा। लड़के ने पूछा तनखा क्या दोगे? साहूकार ने कहा काम देखकर दाम मिलेंगे। साहूकार की नौकरी मिली।

वह सवेरे से रात तक नौकरी करने लगा। कुछ दिनों में दुकान का लेन-देन, हिसाब-किताब, ग्राहकों को माल बेचना, सारा काम वह करने लगा।

साहूकार के सात आठ नौकर और थे। सब चक्कर खाने लगे कि यह तो बहुत होशियार बन गया। सेठ ने भी काम देखा और तीन महीने में उसे आधे मुनाफे का साझीदार बना लिया। वह बारह वर्ष में नामी सेठ बन गया और मालिक सारा कारोबार उसके ऊपर छोड़ कर बाहर चला गया।

अब बहू पर क्या बीती सुनो। सास-ससुर उसे दुख देने लगे सारे गृहस्थी का काम कराकर उसे लकड़ी लेने जंगल भेजते और घर की रोटियों के आटे से जो भूसी निकलती उसकी रोटी बनाकर रख दी जाती और फूटे नारियल की खोपरे में पानी दिया जाता।

इस तरह दिन बीतते रहे। एक दिन वह लकड़ी लेने जा रही थी कि रास्ते में बहुत सी स्त्रियां संतोषी माता का व्रत करती दिखाई दीं। वह खड़ी हो कथा सुनकर बोली, बहनों तुम किस देवता का व्रत करती हो और इसके करने से क्या फल होता है?

इस व्रत के करने की क्या विधि है? यदि तुम अपने इस व्रत का विधान मुझे समझा कर कहोगी तो मैं तुम्हारा बड़ा अहसान मानूंगी।

तब उनमें से एक स्त्री बोली सुनो संतोषी माता का व्रत है। इसके करने से निर्धनता-दरिद्रता का नाश होता है, लक्ष्मी आती हैं, मन की चिंताएं दूर होती हैं, घर में सुख होने से मन को प्रसन्नता और शांति मिलती है, निपुत्र को पुत्र मिलता है।

पति बाहर गया हो तो जल्दी आ जाता है, कुंवारी कन्या को मनपसंद वर मिलता है, राजद्वार में बहुत दिनों से मुकदमा चलता हो तो खत्म हो जाता है, सब तरह सुख-शांति होती है, घर में धन जमा होता है जायजाद-पैसा का लाभ होता है, रोग दूर होता है तथा मन में जो कामना हो वह भी पूरी हो जाती है इसमें संदेह नहीं।

वह पूछने लगी यह व्रत कैसे किया जाता है, यह भी तो बताओ। आपकी बड़ी कृपा होगी।

स्त्री कहने लगी सवा आने का गुड़ चना लेना। इच्छा हो तो सवा पॉंच आने का लेना या सवा रुपए का भी सहूलियत के अनुसार लेना।

बिना परेशानी श्रद्धा और प्रेम से जितना बन सके लेना। सवा पैसे से सवा पॉंच आना तथा इससे भी ज्‍यादा शक्ति और भक्ति अनुसार लेना। हर शुक्रवार को निराहार रहकर कथा कहना। कथा के बीच में क्रम टूटे नहीं।

लगातार नियम पालन करना। सुनने वाला कोई ना मिले तो घी का दीपक जला उसके आगे जल के पात्र को रख कथा कहना, परंतु कथा कहने का नियम न टूटे। जब तक कार्य सिद्धि ना हो नियम पालन करना और कार्य सिद्ध हो जाने पर व्रत का उद्यापन करना।

तीन माह में माता फल पूरा करती हैं। यदि किसी के खोटे ग्रह हो तो भी माता तीन वर्ष में कार्य को अवश्य सिद्ध कर देती हैं। कार्य होने पर ही उद्यापन करना चाहिए बीच में नहीं करना चाहिए।

उद्यापन में अढ़ाई सेर आटे का खाजा तथा इसी अनुपात में खीर तथा चने का साग करना। आठ लड़कों को भोजन कराना। जहां तक मिले देवर, जेठ, भाई-बंधु के लड़के लेना, ना मिले तो रिश्तेदारों और पड़ोसियों के लड़के बुलाना। उन्हें भोजन कराना, यथाशक्ति दक्षिणा देना।

माता का नियम पूरा करना। उस दिन घर में कोई खटाई ना खाए।

यह सुनकर बहू चल दी। रास्ते में लकड़ी के बोझ को बेच दिया और उस पैसे से गुड़ चना ले माता के व्रत की तैयारी कर आगे चली और सामने मंदिर देख पूछने लगी यह मंदिर किसका है? सब बच्चे कहने लगे संतोषी माता का मंदिर है।

यह सुन माता के मंदिर में जा माता के चरणों में लोटने लगी। दीन हो विनती करने लगी मां में निपट मूर्ख व्रत के नियम को जानती नहीं, मैं बहुत दुखी हूं माता, जगजननी मेरा दुख दूर कर मैं तेरी शरण में हूं।

माता को दया आई। एक शुक्रवार बीता कि दूसरे शुक्रवार को ही उसके पति का पत्र आया और तीसरे को उसका भेजा पैसा भी पहुंचा यह देख जेठानी मुंह सिकोड़ने लगी  इतने दिनों में इतना पैसा आया इसमें क्या बड़ाई है? लड़के ताना देने लगे काकी के पास पत्र आने लगे और रुपया  आने लगा, अब तो काकी की खातिर बढ़ेगी, तब तो काकी बोलने से भी नहीं बोलेगी।

बेचारी सरलता से कहती भैया पत्र आवे, रुपया आवे तो हम सबके लिए अच्छा है ऐसा कह कर आंखों में आंसू भर कर संतोषी माता के मंदिर में मातेश्वरी के चरणों में गिर कर रोने लगी।

मां मैंने तुमसे पैसा नहीं मांगा, मुझे पैसे से क्या काम है? मुझे तो अपने सुहाग से काम है। मैं तो अपने स्वामी के दर्शन और सेवा मांगती हूं। तब माता ने प्रसन्न होकर कहा जा बेटी तेरा स्वामी आएगा।

यह सुन खुशी से बावली हो घर में जाकर काम करने लगी। अब संतोषी मां विचार करने लगी इस भोली पुत्री से मैंने कह तो दिया तेरा पति आवेगा पर आवेगा कहां से? वह तो उसे स्वप्न में भी याद नहीं करता। उसे याद दिलाने के लिए मुझे जाना पड़ेगा।

इस तरह माता बुढ़िया के बेटे के पास जा स्वप्न में प्रकट हो कहने लगी साहूकार के बेटे सोता है या जागता है? वह बोला माता सोता भी नहीं हूँ और जागता भी नहीं हूं बीच में ही हूं कहो क्या आज्ञा है?
मां कहने लगी तेरा घर बार कुछ है या नहीं? वह बोला मेरा सब कुछ है मां, बाप, भाई, बहन, व बहू। क्या कमी है?

मां बोली भोले पुत्र तेरी स्‍त्री कष्ट उठा रही है, मां-बाप उसे कष्ट दे रहे हैं, दुख दे रहे हैं वह तेरे लिए तरस रही है। तू उसकी सुधि‍ ले। वह बोला माता यह तो मालूम है, परंतु जाऊं कैसे? परदेश की बात है, लेन-देन का कोई हिसाब नहीं।

जाने का कोई रास्ता नजर नहीं आता। कैसे चला जाऊं? मां कहने लगी मेरी बात मान सवेरे नहा धोकर माता का नाम ले घी का दीपक जला दंडवत कर दुकान पर जा बैठना। तब देखते देखते तेरा लेनदेन सब हो जाएगा, माल बिक जाएगा और शाम होते-होते धन का ढेर लग जाएगा।

तब सवेरे बहुत जल्दी उठ उसने लोगों से अपने सपने की बात कही तो वे सब उसकी बात को अनसुनी करके खिल्ली उड़ाने लगे कहीं सपने सच होते हैं।

एक बूढ़ा बोला भाई मेरी बात मान इस तरह सच झूठ कहने के बदले देवता ने जैसा कहा है वैसा ही करना तेरा इसमें क्या जाता है। अब बूढ़े की बात मानकर वह नहा धोकर संतोषी माता को दंडवत कर घी का दीपक जला दुकान पर जा बैठा।

थोड़ी देर में क्या देखता है कि देने वाले रुपया लाए, लेने वाले हिसाब लेने लगे, कोठे में भरे सामानों के खरीददार नकद दाम में सौदा करने लगे और शाम तक धन का ढेर लग गया। माता का नाम ले घर ले जाने के वास्ते गहना कपड़ा खरीदने लगा और वहां से काम से निपट तुरंत घर को रवाना हुआ।

वहां बहू बेचारी जंगल में लकड़ी लेने जाती है। लौटते वक्त माताजी के मंदिर में विश्राम करती है। वह तो उसका रोज रुकने का स्थान जो ठहरा। दूर से धूल उड़ती देख माता से पूछती है माता धूल कैसे उड़ रही है? मां कहती है पुत्री तेरा पति आ रहा है।

अब तू ऐसा कर लकड़ियों के तीन बोझ बना ले, एक नदी के किनारे रख, दूसरा मेरे मंदिर पर और तीसरा अपने सिर पर रख। तेरे पति को लकड़ी का गट्ठा देख कर मोह पैदा होगा। वह यहॉं रुकेगा, नाश्ता पानी बना, खा पीकर मां से मिलने जाएगा।

तब तू लकड़ी का बोझ उठाकर जाना और बोझ आंगन में डाल कर दरवाजे पर जोर से लगाना, लो सासूजी लकड़ियों का गट्ठर लो, भूसी की रोटी दो और नारियल के खोपड़े में पानी दो, आज मेहमान कौन आया है?

मां की बात सुन बहुत अच्छा माता कहकर प्रसन्न हो लकड़ियों के तीन गटठे ले आई, एक नदी के तट पर, एक माता के मंदिर पर रखा। इतने में एक मुसाफिर वहॉं आ पहुँचा। सूखी लकड़ी देख उसकी इच्‍छा हुई कि यहीं निवास करे और भोजन बना कर खापीकर गॉंव जायेा इस प्रकार भोजन बना कर विश्राम ले, गॉंव को गया, सबसे प्रेम से मिला उसी समय बहू सिर पर लकड़ी का गट्ठा लिये आती है।

लकड़ी का भारी बोझ आंगन में डाल जोर से तीन आवाज देती है ... लो सासू जी! लकड़ी का गट्ठा लो, भूसी की रोटी दो, नारियल के खोपड़े में पानी दो।

आज मेहमान कौन आया है? यह सुनकर उसकी सास अपने दिये हुए कष्‍टाों को भुलाने हेतु कहती है ... बहू ऐसा क्यों कहती है, तेरा मालिक ही तो आया है। आ बैठ, मीठा भात खा, भोजन कर, कपड़े गहने पहन।

इतने में आवाज सुन उसका स्वामी बाहर आता है और अंगूठी देख व्याकुल हो मां से पूछता है -मां यह कौन है? मां कहती है बेटा तेरी बहू है।

आज बारह वर्ष हो गए तू जब से गया है, तब से सारे गांव में जानवर की तरह भटकती फिरती है, कामकाज घर का कुछ करती नहीं, चार समय आ कर खा जाती है।

अब तुझे देखकर भूसी की रोटी और नारियल की खोपड़ी में पानी मांगती है। वह लज्जित होकर बोला ठीक है मैंने इसे भी देखा है और तुम्हें भी देखा है। अब मुझे दूसरे घर की ताली दो तो उसमें रहूं।

तब मॉं बोली ठीक है बेटा जैसी तेरी मर्जी। कहकर ताली का गुच्छा पटक दिया। उसने ताली ले दूसरे कमरे में जो तीसरी मंजिल के ऊपर था खोलकर सारा सामान जमाया। एक दिन में ही वहां राजा के महल जैसा ठाठ बाट बन गया।

अब क्या था वह दोनों सुख पूर्वक रहने लगे। इतने में अगला शुक्रवार आया। बहू ने अपने पति से कहा कि मुझको माता का उद्यापन करना है। पति बोला बहुत अच्छा, खुशी से करो। वह तुरंत ही उद्यापन की तैयारी करने लगी। 

जेठ के लड़कों को भोजन के लिए कहने गई। उन्होंने मंजूर किया परंतु जेठानी अपने बच्चों को सिखाती है देखो रे! भोजन के बाद सब लोग खटाई मांगना जिससे उसका उद्यापन पूरा न हो।

लड़के भोजन करने आए। खीर पेट भर कर खाई परंतु याद आते हैं कहने लगे हमें कुछ खटाई दो फिर खाना हमें भाता नहीं देखकर अरुचि होती है।

बहू कहने लगी खटाई किसी को नहीं दी जाएगी। यह तो संतोषी माता का प्रसाद है। लड़के उठ खड़े हुए और बोले पैसा लाओ। भोली बहु कुछ जानती नहीं थी तो उन्हें पैसे दे दिए। लड़के उसी समय हठ करके इमली लाकर खाने लगे।

यह देखकर बहू पर माताजी ने कोप  किया। राजा के दूत उसके पति को पकड़ कर ले गए। जेठ जेठानी मनमाने खोटे वचन कहने लगे।लूट कर धन इकट्ठा कर लाया था, सो राजा के दूत उसको पकड़ कर ले गए। अब मालूम पड़ जाएगा जब जेल की मार खाएगा।

बहू से यह वचन सहन नहीं हुए। रोती रोती माता के मंदिर में गई और बोली हे माता तुमने यह क्या किया? हंसा कर क्यों रुलाने लगी?

माता बोली पुत्री तूने उद्यापन करके मेरा व्रत भंग किया। इतनी जल्दी सब बातें भुला दी। वह कहने लगी माता भूली तो नहीं हूँ? न कुछ अपराध किया है। मुझे तो लड़कों ने भूल में डाल दिया। मैंने भूल से उन्हें पैसे दे दिए। मुझे क्षमा करो मां।

मां बोली ऐसी भी कहीं भूल होती है। वह बोली मां मुझे माफ कर दो। मैं फिर से तुम्हारा उद्यापन करूंगी। मां बोली भूल मत जाना। वह बोली अब भूल न होगी मां। अब बताओ वे कैसे आएंगे। मां बोली तेरा मालिक तुझे रास्ते में आता मिलेगा।

वह घर की ओर चली राह में पति आता मिला। उसने पूछा तुम कहां गए थे। तब वह कहने लगा इतना धन जो कमाया है, उसका टैक्स राजा ने मांगा था, वह भरने गया था। वह प्रसन्न हो बोली भला हुआ अब घर को चलो। कुछ दिन बाद फिर शुक्रवार आया।

वह बोली मुझे माता का उद्यापन करना है। पति ने कहा करो।  फिर जेठ के लड़कों से भोजन को कहने गई।

जेठानी ने एक दो बातें सुनाई। लड़कों को सिखा दिया कि पहले ही खटाई मांगने लगना। लड़के कहने लगे हमें खीर नहीं भाता, जी बिगड़ता है, कुछ खटाई खाने को देना। वह बोली खटाई खाने को नहीं मिलेगा, खाना हो तो खाओ।

वह ब्राह्मण के लड़कों को लेकर भोजन कराने लगी। यथाशक्ति दक्षिणा की जगह एक एक फल उन्हें दिया। इससे संतोषी मां प्रसन्‍न हुई । माता की कृपा होते ही नौवे मास उसको चंद्रमा के समान सुंदर पुत्र प्राप्त हुआ। पुत्र को लेकर प्रतिदिन माता के मंदिर जाने लगी।

मॉं ने सोचा कि वह रोज आती है आज क्यों ना मैं इसके घर चलूँ। इसका आसरा देखूँ तो सही। यह विचार कर माता ने भयानक रूप बनाया। गुड़ और चने से सना मुख ऊपर सूर्य के समान होठ उस पर मक्खियां भिनभिना रही हैं।

दहलीज में पांव रखते ही सास चिल्‍लाई देखो रे कोई चुड़ैल चली आ रही है। लड़कों इसे भगाओ नहीं तो किसी को खा जाएगी। लड़के डरने लगे और चिल्लाकर खिड़की बंद करने लगे। बहु रोशनदान से देख रही थी। प्रसन्‍नता से पागल होकर चिल्लाने लगी। आज मेरी माता घर आई है यह कह कर बच्चे को दूध पीने से हटाती है। इतने में सास का क्रोध फूट पड़ा।

इसे देखकर कैसी उतावली हुई है जो बच्चे को पटक दिया। इतने में मां के प्रताप से जहां देखो वहीं लड़के ही लड़के नजर आने लगे। वह बोली मां जी जिनका मैं व्रत करती हूं यह वही संतोषी माता है। इतना कह कर झट से सारे घर के किवाड़ खोल देती है। सबने माता के चरण पकड़ लिए और विनती कर कहने लगे हैं माता हम मूर्ख हैं।

हम अज्ञानी हैं, पापी हैं, तुम्हारे व्रत की विधि हम नहीं जानते। तुम्हारा व्रत भंग कर हमने बड़ा अपराध किया है, हे माता आप हमारे अपराध को क्षमा करो। इस प्रकार माता प्रसन्न हुई। माता ने बहू को जैसा फल दिया वैसा माता सबको दे। जो पढ़े उसका मनोरथ पूर्ण हो। बोलो संतोषी माता की जय। ( Santoshi Mata Ki Jai ) |


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श्री संतोषी माता की व्रत कथा || Shri Santoshi Mata Ki Vrat Katha || शुक्रवार की व्रत कथा
keladi rameshwara temple

Keladi Rameshwara Temple – केलाडी रामेश्वर मंदिर – अपनी तरह की अनूठी वास्तुकला का साक्षी

Keladi Rameshwara Temple - कर्नाटक को मंदिरों के शहर के रूप में जाना जाता है, यहाँ हर मंदिर की अपनी अनूठी वास्तुकला शैली है। ऐसा ही एक मंदिर है केलाडी…

Shri Satyanarayan Vrat Katha in Hindi font ( श्री सत्य नारायण व्रत कथा ) - Shri Satya Narayan Vrat Katha is one of the most important vrat katha of Lord Shri Hari.

Shri Satyanarayan Katha in hindi is in full five chapters. Below are the five chapters!

पहला अध्याय

shri satyanarayan vrat katha in hindi - Chapter1

श्रीव्यास जी ने कहा - एक समय नैमिषारण्य तीर्थ में शौनक आदि सभी ऋषियों तथा मुनियों ने पुराणशास्त्र के वेत्ता श्रीसूत जी महाराज से पूछा - महामुने! किस व्रत अथवा तपस्या से मनोवांछित फल प्राप्त होता है, उसे हम सब सुनना चाहते हैं, आप कहें।

श्री सूतजी बोले - इसी प्रकार देवर्षि नारदजी के द्वारा भी पूछे जाने पर भगवान कमलापति ने उनसे जैसा कहा था, उसे कह रहा हूं, आप लोग सावधान होकर सुनें। एक समय योगी नारदजी लोगों के कल्याण की कामना से विविध लोकों में भ्रमण करते हुए मृत्युलोक में आये और यहां उन्होंने अपने कर्मफल के अनुसार नाना योनियों में उत्पन्न सभी प्राणियों को अनेक प्रकार के क्लेश दुख भोगते हुए देखा तथा ‘किस उपाय से इनके दुखों का सुनिश्चित रूप से नाश हो सकता है’, ऐसा मन में विचार करके वे विष्णुलोक गये।

वहां चार भुजाओं वाले शंख, चक्र, गदा, पद्म तथा वनमाला से विभूषित शुक्लवर्ण भगवान श्री नारायण का दर्शन कर उन देवाधिदेव की वे स्तुति करने लगे।

नारद जी बोले - हे वाणी और मन से परे स्वरूप वाले, अनन्तशक्तिसम्पन्न, आदि-मध्य और अन्त से रहित, निर्गुण और सकल कल्याणमय गुणगणों से सम्पन्न, स्थावर-जंगमात्मक निखिल सृष्टिप्रपंच के कारणभूत तथा भक्तों की पीड़ा नष्ट करने वाले परमात्मन! आपको नमस्कार है।

स्तुति सुनने के अनन्तर भगवान श्रीविष्णु जी ने नारद जी से कहा- महाभाग! आप किस प्रयोजन से यहां आये हैं, आपके मन में क्या है? कहिये, वह सब कुछ मैं आपको बताउंगा।

नारद जी बोले - भगवन! मृत्युलोक में अपने पापकर्मों के द्वारा विभिन्न योनियों में उत्पन्न सभी लोग बहुत प्रकार के क्लेशों से दुखी हो रहे हैं। हे नाथ! किस लघु उपाय से उनके कष्टों का निवारण हो सकेगा, यदि आपकी मेरे ऊपर कृपा हो तो वह सब मैं सुनना चाहता हूं। उसे बतायें।

श्री भगवान ने कहा - हे वत्स! संसार के ऊपर अनुग्रह करने की इच्छा से आपने बहुत अच्छी बात पूछी है। जिस व्रत के करने से प्राणी मोह से मुक्त हो जाता है, उसे आपको बताता हूं, सुनें।

हे वत्स! स्वर्ग और मृत्युलोक में दुर्लभ भगवान सत्यनारायण का एक महान पुण्यप्रद व्रत है। आपके स्नेह के कारण इस समय मैं उसे कह रहा हूं। अच्छी प्रकार विधि-विधान से भगवान सत्यनारायण व्रत करके मनुष्य शीघ्र ही सुख प्राप्त कर परलोक में मोक्ष प्राप्त कर सकता है।

भगवान की ऐसी वाणी सनुकर नारद मुनि ने कहा -प्रभो इस व्रत को करने का फल क्या है? इसका विधान क्या है? इस व्रत को किसने किया और इसे कब करना चाहिए? यह सब विस्तारपूर्वक बतलाइये।

श्री भगवान ने कहा - यह सत्यनारायण व्रत दुख-शोक आदि का शमन करने वाला, धन-धान्य की वृद्धि करने वाला, सौभाग्य और संतान देने वाला तथा सर्वत्र विजय प्रदान करने वाला है। जिस-किसी भी दिन भक्ति और श्रद्धा से समन्वित होकर मनुष्य ब्राह्मणों और बन्धुबान्धवों के साथ धर्म में तत्पर होकर सायंकाल भगवान सत्यनारायण की पूजा करे।

नैवेद्य के रूप में उत्तम कोटि के भोजनीय पदार्थ को सवाया मात्रा में भक्तिपूर्वक अर्पित करना चाहिए। केले के फल, घी, दूध, गेहूं का चूर्ण अथवा गेहूं के चूर्ण के अभाव में साठी चावल का चूर्ण, शक्कर या गुड़ - यह सब भक्ष्य सामग्री सवाया मात्रा में एकत्र कर निवेदित करनी चाहिए।

बन्धु-बान्धवों के साथ श्री सत्यनारायण भगवान की कथा सुनकर ब्राह्मणों को दक्षिणा देनी चाहिए। तदनन्तर बन्धु-बान्धवों के साथ ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। भक्तिपूर्वक प्रसाद ग्रहण करके नृत्य-गीत आदि का आयोजन करना चाहिए। तदनन्तर भगवान सत्यनारायण का स्मरण करते हुए अपने घर जाना चाहिए। ऐसा करने से मनुष्यों की अभिलाषा अवश्य पूर्ण होती है। विशेष रूप से कलियुग में, पृथ्वीलोक में यह सबसे छोटा सा उपाय है।

दूसरा अध्याय

shri satyanarayan vrat katha in hindi - chapter 2

श्रीसूतजी बोले - हे द्विजों! अब मैं पुनः पूर्वकाल में जिसने इस सत्यनारायण व्रत को किया था, उसे भलीभांति विस्तारपूर्वक कहूंगा। रमणीय काशी नामक नगर में कोई अत्यन्त निर्धन ब्राह्मण रहता था।

भूख और प्यास से व्याकुल होकर वह प्रतिदिन पृथ्वी पर भटकता रहता था। ब्राह्मण प्रिय भगवान ने उस दुखी ब्राह्मण को देखकर वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण करके उस द्विज से आदरपूर्वक पूछा - हे विप्र! प्रतिदिन अत्यन्त दुखी होकर तुम किसलिए पृथ्वीपर भ्रमण करते रहते हो। हे द्विजश्रेष्ठ! यह सब बतलाओ, मैं सुनना चाहता हूं।

ब्राह्मण बोला - प्रभो! मैं अत्यन्त दरिद्र ब्राह्मण हूं और भिक्षा के लिए ही पृथ्वी पर घूमा करता हूं। यदि मेरी इस दरिद्रता को दूर करने का आप कोई उपाय जानते हों तो कृपापूर्वक बतलाइये।

वृद्ध ब्राह्मण बोला - हे ब्राह्मणदेव! सत्यनारायण भगवान् विष्णु अभीष्ट फल को देने वाले हैं। हे विप्र! तुम उनका उत्तम व्रत करो, जिसे करने से मनुष्य सभी दुखों से मुक्त हो जाता है।

व्रत के विधान को भी ब्राह्मण से यत्नपूर्वक कहकर वृद्ध ब्राह्मणरूपधारी भगवान् विष्णु वहीं पर अन्तर्धान हो गये। ‘वृद्ध ब्राह्मण ने जैसा कहा है, उस व्रत को अच्छी प्रकार से वैसे ही करूंगा’ - यह सोचते हुए उस ब्राह्मण को रात में नींद नहीं आयी।

अगले दिन प्रातःकाल उठकर ‘सत्यनारायण का व्रत करूंगा’ ऐसा संकल्प करके वह ब्राह्मण भिक्षा के लिए चल पड़ा। उस दिन ब्राह्मण को भिक्षा में बहुत सा धन प्राप्त हुआ। उसी धन से उसने बन्धु-बान्धवों के साथ भगवान सत्यनारायण का व्रत किया।

इस व्रत के प्रभाव से वह श्रेष्ठ ब्राह्मण सभी दुखों से मुक्त होकर समस्त सम्पत्तियों से सम्पन्न हो गया। उस दिन से लेकर प्रत्येक महीने उसने यह व्रत किया। इस प्रकार भगवान् सत्यनारायण के इस व्रत को करके वह श्रेष्ठ ब्राह्मण सभी पापों से मुक्त हो गया और उसने दुर्लभ मोक्षपद को प्राप्त किया।

हे विप्र! पृथ्वी पर जब भी कोई मनुष्य श्री सत्यनारायण का व्रत करेगा, उसी समय उसके समस्त दुख नष्ट हो जायेंगे। हे ब्राह्मणों! इस प्रकार भगवान नारायण ने महात्मा नारदजी से जो कुछ कहा, मैंने वह सब आप लोगों से कह दिया, आगे अब और क्या कहूं?

हे मुने! इस पृथ्वी पर उस ब्राह्मण से सुने हुए इस व्रत को किसने किया? हम वह सब सुनना चाहते हैं, उस व्रत पर हमारी श्रद्धा हो रही है।

श्री सूत जी बोले - मुनियों! पृथ्वी पर जिसने यह व्रत किया, उसे आप लोग सुनें। एक बार वह द्विजश्रेष्ठ अपनी धन-सम्पत्ति के अनुसार बन्धु-बान्धवों तथा परिवारजनों के साथ व्रत करने के लिए उद्यत हुआ।

इसी बीच एक लकड़हारा वहां आया और लकड़ी बाहर रखकर उस ब्राह्मण के घर गया। प्यास से व्याकुल वह उस ब्राह्मण को व्रत करता हुआ देख प्रणाम करके उससे बोला - प्रभो! आप यह क्या कर रहे हैं, इसके करने से किस फल की प्राप्ति होती है, विस्तारपूर्वक मुझसे कहिये।

विप्र ने कहा - यह सत्यनारायण का व्रत है, जो सभी मनोरथों को प्रदान करने वाला है। उसी के प्रभाव से मुझे यह सब महान धन-धान्य आदि प्राप्त हुआ है। जल पीकर तथा प्रसाद ग्रहण करके वह नगर चला गया।

सत्यनारायण देव के लिए मन से ऐसा सोचने लगा कि ‘आज लकड़ी बेचने से जो धन प्राप्त होगा, उसी धन से भगवान सत्यनारायण का श्रेष्ठ व्रत करूंगा।’ इस प्रकार मन से चिन्तन करता हुआ लकड़ी को मस्तक पर रख कर उस सुन्दर नगर में गया, जहां धन-सम्पन्न लोग रहते थे।

उस दिन उसने लकड़ी का दुगुना मूल्य प्राप्त किया।
इसके बाद प्रसन्न हृदय होकर वह पके हुए केले का फल, शर्करा, घी, दूध और गेहूं का चूर्ण सवाया मात्रा में लेकर अपने घर आया।

तत्पश्चात उसने अपने बान्धवों को बुलाकर विधि-विधान से भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत किया। उस व्रत के प्रभाव से वह धन-पुत्र से सम्पन्न हो गया और इस लोक में अनेक सुखों का उपभोग कर अन्त में सत्यपुर अर्थात् बैकुण्ठलोक चला गया।

तीसरा अध्याय

( shri satyanarayan bhagwan ki vrat katha in hindi - chapter 3 )

श्री सूतजी बोले - श्रेष्ठ मुनियों! अब मैं पुनः आगे की कथा कहूंगा, आप लोग सुनें। प्राचीन काल में उल्कामुख नाम का एक राजा था। वह जितेन्द्रिय, सत्यवादी तथा अत्यन्त बुद्धिमान था। वह विद्वान राजा प्रतिदिन देवालय जाता और ब्राह्मणों को धन देकर सन्तुष्ट करता था।

कमल के समान मुख वाली उसकी धर्मपत्नी शील, विनय एवं सौन्दर्य आदि गुणों से सम्पन्न तथा पतिपरायणा थी। राजा एक दिन अपनी धर्मपत्नी के साथ भद्रशीला नदी के तट पर श्रीसत्यनारायण का व्रत कर रहा था।

उसी समय व्यापार के लिए अनेक प्रकार की पुष्कल धनराशि से सम्पन्न एक साधु नाम का बनिया वहां आया।

भद्रशीला नदी के तट पर नाव को स्थापित कर वह राजा के समीप गया और राजा को उस व्रत में दीक्षित देखकर विनयपूर्वक पूछने लगा।
साधु ने कहा - राजन्! आप भक्तियुक्त चित्त से यह क्या कर रहे हैं? कृपया वह सब बताइये, इस समय मैं सुनना चाहता हूं।

राजा बोले - हे साधो! पुत्र आदि की प्राप्ति की कामना से अपने बन्धु-बान्धवों के साथ मैं अतुल तेज सम्पन्न भगवान् विष्णु का व्रत एवं पूजन कर रहा हूं।

राजा की बात सुनकर साधु ने आदरपूर्वक कहा - राजन् ! इस विषय में आप मुझे सब कुछ विस्तार से बतलाइये, आपके कथनानुसार मैं व्रत एवं पूजन करूंगा।

मुझे भी संतति नहीं है। ‘इससे अवश्य ही संतति प्राप्त होगी।’ ऐसा विचार कर वह व्यापार से निवृत्त हो आनन्दपूर्वक अपने घर आया। उसने अपनी भार्या से संतति प्रदान करने वाले इस सत्यव्रत को विस्तार पूर्वक बताया तथा - ‘जब मुझे संतति प्राप्त होगी तब मैं इस व्रत को करूंगा’ - इस प्रकार उस साधु ने अपनी भार्या लीलावती से कहा।

एक दिन उसकी लीलावती नाम की सती-साध्वी भार्या पति के साथ आनन्द चित्त से ऋतुकालीन धर्माचरण में प्रवृत्त हुई और भगवान् श्रीसत्यनारायण की कृपा से उसकी वह भार्या गर्भिणी हुई।

दसवें महीने में उससे कन्यारत्न की उत्पत्ति हुई और वह शुक्लपक्ष के चन्द्रम की भांति दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी। उस कन्या का ‘कलावती’ यह नाम रखा गया। इसके बाद एक दिन लीलावती ने अपने स्वामी से मधुर वाणी में कहा - आप पूर्व में संकल्पित श्री सत्यनारायण के व्रत को क्यों नहीं कर रहे हैं?

साधु बोला - ‘प्रिये! इसके विवाह के समय व्रत करूंगा।’ इस प्रकार अपनी पत्नी को भली-भांति आश्वस्त कर वह व्यापार करने के लिए नगर की ओर चला गया। इधर कन्या कलावती पिता के घर में बढ़ने लगी।

तदनन्तर धर्मज्ञ साधु ने नगर में सखियों के साथ क्रीड़ा करती हुई अपनी कन्या को विवाह योग्य देखकर आपस में मन्त्रणा करके ‘कन्या विवाह के लिए श्रेष्ठ वर का अन्वेषण करो’ - ऐसा दूत से कहकर शीघ्र ही उसे भेज दिया।

उसकी आज्ञा प्राप्त करके दूत कांचन नामक नगर में गया और वहां से एक वणिक का पुत्र लेकर आया। उस साधु ने उस वणिक के पुत्र को सुन्दर और गुणों से सम्पन्न देखकर अपनी जाति के लोगों तथा बन्धु-बान्धवों के साथ संतुष्टचित्त हो विधि-विधान से वणिकपुत्र के हाथ में कन्या का दान कर दिया।
उस समय वह साधु बनिया दुर्भाग्यवश भगवान् का वह उत्तम व्रत भूल गया। पूर्व संकल्प के अनुसार विवाह के समय में व्रत न करने के कारण भगवान उस पर रुष्ट हो गये।

कुछ समय के पश्चात अपने व्यापारकर्म में कुशल वह साधु बनिया काल की प्रेरणा से अपने दामाद के साथ व्यापार करने के लिए समुद्र के समीप स्थित रत्नसारपुर नामक सुन्दर नगर में गया और पअने श्रीसम्पन्न दामाद के साथ वहां व्यापार करने लगा।

उसके बाद वे दोों राजा चन्द्रकेतु के रमणीय उस नगर में गये। उसी समय भगवान् श्रीसत्यनारायण ने उसे भ्रष्टप्रतिज्ञ देखकर ‘इसे दारुण, कठिन और महान् दुख प्राप्त होगा’ - यह शाप दे दिया।

एक दिन एक चोर राजा चन्द्रकेतु के धन को चुराकर वहीं आया, जहां दोनों वणिक स्थित थे। वह अपने पीछे दौड़ते हुए दूतों को देखकर भयभीतचित्त से धन वहीं छोड़कर शीघ्र ही छिप गया। इसके बाद राजा के दूत वहां आ गये जहां वह साधु वणिक था।

वहां राजा के धन को देखकर वे दूत उन दोनों वणिकपुत्रों को बांधकर ले आये और हर्षपूर्वक दौड़ते हुए राजा से बोले - ‘प्रभो! हम दो चोर पकड़ लाए हैं, इन्हें देखकर आप आज्ञा दें’।

राजा की आज्ञा से दोनों शीघ्र ही दृढ़तापूर्वक बांधकर बिना विचार किये महान कारागार में डाल दिये गये। भगवान् सत्यदेव की माया से किसी ने उन दोनों की बात नहीं सुनी और राजा चन्द्रकेतु ने उन दोनों का धन भी ले लिया।

भगवान के शाप से वणिक के घर में उसकी भार्या भी अत्यन्त दुखित हो गयी और उनके घर में सारा-का-सारा जो धन था, वह चोर ने चुरा लिया। लीलावती शारीरिक तथा मानसिक पीड़ाओं से युक्त, भूख और प्यास से दुखी हो अन्न की चिन्ता से दर-दर भटकने लगी।

कलावती कन्या भी भोजन के लिए इधर-उधर प्रतिदिन घूमने लगी। एक दिन भूख से पीडि़त कलावती एक ब्राह्मण के घर गयी। वहां जाकर उसने श्रीसत्यनारायण के व्रत-पूजन को देखा। वहां बैठकर उसने कथा सुनी और वरदान मांगा।

उसके बाद प्रसाद ग्रहण करके वह कुछ रात होने पर घर गयी।
माता ने कलावती कन्या से प्रेमपूर्वक पूछा - पुत्री ! रात में तू कहां रुक गयी थी? तुम्हारे मन में क्या है? कलावती कन्या ने तुरन्त माता से कहा - मां! मैंने एक ब्राह्मण के घर में मनोरथ प्रदान करने वाला व्रत देखा है।

कन्या की उस बात को सुनकर वह वणिक की भार्या व्रत करने को उद्यत हुई और प्रसन्न मन से उस साध्वी ने बन्धु-बान्धवों के साथ भगवान् श्रीसत्यनारायण का व्रत किया तथा इस प्रकार प्रार्थना की - ‘भगवन! आप हमारे पति एवं जामाता के अपराध को क्षमा करें।

वे दोनों अपने घर शीघ्र आ जायं।’ इस व्रत से भगवान सत्यनारायण पुनः संतुष्ट हो गये तथा उन्होंने नृपश्रेष्ठ चन्द्रकेतु को स्वप्न दिखाया और स्वप्न में कहा - ‘नृपश्रेष्ठ! प्रातः काल दोनों वणिकों को छोड़ दो और वह सारा धन भी दे दो, जो तुमने उनसे इस समय ले लिया है, अन्यथा राज्य, धन एवं पुत्रसहित तुम्हारा सर्वनाश कर दूंगा।’

राजा से स्वप्न में ऐसा कहकर भगवान सत्यनारायण अन्तर्धान हो गये। इसके बाद प्रातः काल राजा ने अपने सभासदों के साथ सभा में बैठकर अपना स्वप्न लोगों को बताया और कहा - ‘दोनों बंदी वणिकपुत्रों को शीघ्र ही मुक्त कर दो।’ राजा की ऐसी बात सुनकर वे राजपुरुष दोनों महाजनों को बन्धनमुक्त करके राजा के सामने लाकर विनयपूर्वक बोले - ‘महाराज! बेड़ी-बन्धन से मुक्त करके दोनों वणिक पुत्र लाये गये हैं।

इसके बाद दोनों महाजन नृपश्रेष्ठ चन्द्रकेतु को प्रणाम करके अपने पूर्व-वृतान्त का स्मरण करते हुए भयविह्वन हो गये और कुछ बोल न सके।
राजा ने वणिक पुत्रों को देखकर आदरपूर्वक कहा -‘आप लोगों को प्रारब्धवश यह महान दुख प्राप्त हुआ है, इस समय अब कोई भय नहीं है।’, ऐसा कहकर उनकी बेड़ी खुलवाकर क्षौरकर्म आदि कराया।

राजा ने वस्त्र, अलंकार देकर उन दोनों वणिकपुत्रों को संतुष्ट किया तथा सामने बुलाकर वाणी द्वारा अत्यधिक आनन्दित किया।

पहले जो धन लिया था, उसे दूना करके दिया, उसके बाद राजा ने पुनः उनसे कहा - ‘साधो! अब आप अपने घर को जायं।’ राजा को प्रणाम करके ‘आप की कृपा से हम जा रहे हैं।’ - ऐसा कहकर उन दोनों महावैश्यों ने अपने घर की ओर प्रस्थान किया।

चौथा अध्याय

( shri satyanarayan bhagwan ki vrat katha in hindi - chapter 4)

श्रीसूत जी बोले - साधु बनिया मंगलाचरण कर और ब्राह्मणों को धन देकर अपने नगर के लिए चल पड़ा। साधु के कुछ दूर जाने पर भगवान सत्यनारायण की उसकी सत्यता की परीक्षा के विषय में जिज्ञासा हुई - ‘साधो! तुम्हारी नाव में क्या भरा है?’ तब धन के मद में चूर दोनों महाजनों ने अवहेलनापूर्वक हंसते हुए कहा - ‘दण्डिन! क्यों पूछ रहे हो? क्या कुछ द्रव्य लेने की इच्छा है? हमारी नाव में तो लता और पत्ते आदि भरे हैं।’ ऐसी निष्ठुर वाणी सुनकर - ‘तुम्हारी बात सच हो जाय’ - ऐसा कहकर दण्डी संन्यासी को रूप धारण किये हुए भगवान कुछ दूर जाकर समुद्र के समीप बैठ गये।

दण्डी के चले जाने पर नित्यक्रिया करने के पश्चात उतराई हुई अर्थात जल में उपर की ओर उठी हुई नौका को देखकर साधु अत्यन्त आश्चर्य में पड़ गया और नाव में लता और पत्ते आदि देखकर मुर्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ा।

सचेत होने पर वणिकपुत्र चिन्तित हो गया। तब उसके दामाद ने इस प्रकार कहा - ‘आप शोक क्यों करते हैं? दण्डी ने शाप दे दिया है, इस स्थिति में वे ही चाहें तो सब कुछ कर सकते हैं, इसमें संशय नहीं।

अतः उन्हीं की शरण में हम चलें, वहीं मन की इच्छा पूर्ण होगी।’ दामाद की बात सुनकर वह साधु बनिया उनके पास गया और वहां दण्डी को देखकर उसने भक्तिपूर्वक उन्हें प्रणाम किया तथा आदरपूर्वक कहने लगा - आपके सम्मुख मैंने जो कुछ कहा है, असत्यभाषण रूप अपराध किया है, आप मेरे उस अपराध को क्षमा करें - ऐसा कहकर बारम्बार प्रणाम करके वह महान शोक से आकुल हो गया।

दण्डी ने उसे रोता हुआ देखकर कहा - ‘हे मूर्ख! रोओ मत, मेरी बात सुनो। मेरी पूजा से उदासीन होने के कारण तथा मेरी आज्ञा से ही तुमने बारम्बार दुख प्राप्त किया है।’ भगवान की ऐसी वाणी सुनकर वह उनकी स्तुति करने लगा।

साधु ने कहा - ‘हे प्रभो! यह आश्चर्य की बात है कि आपकी माया से मोहित होने के कारण ब्रह्मा आदि देवता भी आपके गुणों और रूपों को यथावत रूप से नहीं जान पाते, फिर मैं मूर्ख आपकी माया से मोहित होने के कारण कैसे जान सकता हूं! आप प्रसन्न हों।

मैं अपनी धन-सम्पत्ति के अनुसार आपकी पूजा करूंगा। मैं आपकी शरण में आया हूं। मेरा जो नौका में स्थित पुराा धन था, उसकी तथा मेरी रक्षा करें।’ उस बनिया की भक्तियुक्त वाणी सुनकर भगवान जनार्दन संतुष्ट हो गये।

भगवान हरि उसे अभीष्ट वर प्रदान करके वहीं अन्तर्धान हो गये। उसके बाद वह साधु अपनी नौका में चढ़ा और उसे धन-धान्य से परिपूर्ण देखकर ‘भगवान सत्यदेव की कृपा से हमारा मनोरथ सफल हो गया’ - ऐसा कहकर स्वजनों के साथ उसने भगवान की विधिवत पूजा की।

भगवान श्री सत्यनारायण की कृपा से वह आनन्द से परिपूर्ण हो गया और नाव को प्रयत्नपूर्वक संभालकर उसने अपने देश के लिए प्रस्थान किया। साधु बनिया ने अपने दामाद से कहा - ‘वह देखो मेरी रत्नपुरी नगरी दिखायी दे रही है’। इसके बाद उसने अपने धन के रक्षक दूत कोअपने आगमन का समाचार देने के लिए अपनी नगरी में भेजा।

उसके बाद उस दूत ने नगर में जाकर साधु की भार्या को देख हाथ जोड़कर प्रणाम किया तथा उसके लिए अभीष्ट बात कही -‘सेठ जी अपने दामाद तथा बन्धुवर्गों के साथ बहुत सारे धन-धान्य से सम्पन्न होकर नगर के निकट पधार गये हैं।’

दूत के मुख से यह बात सुनकर वह महान आनन्द से विह्वल हो गयी और उस साध्वी ने श्री सत्यनारायण की पूजा करके अपनी पुत्री से कहा -‘मैं साधु के दर्शन के लिए जा रही हूं, तुम शीघ्र आओ।’

माता का ऐसा वचन सुनकर व्रत को समाप्त करके प्रसाद का परित्याग कर वह कलावती भी अपने पति का दर्शन करने के लिए चल पड़ी। इससे भगवान सत्यनारायण रुष्ट हो गये और उन्होंने उसके पति को तथा नौका को धन के साथ हरण करके जल में डुबो दिया।

इसके बाद कलावती कन्या अपने पति को न देख महान शोक से रुदन करती हुई पृथ्वी पर गिर पड़ी। नाव का अदर्शन तथा कन्या को अत्यन्त दुखी देख भयभीत मन से साधु बनिया से सोचा - यह क्या आश्चर्य हो गया? नाव का संचालन करने वाले भी सभी चिन्तित हो गये।

तदनन्तर वह लीलावती भी कन्या को देखकर विह्वल हो गयी और अत्यन्त दुख से विलाप करती हुई अपने पति से इस प्रकार बोली -‘ अभी-अभी नौका के साथ वह कैसे अलक्षित हो गया, न जाने किस देवता की उपेक्षा से वह नौका हरण कर ली गयी अथवा श्रीसत्यनारायण का माहात्म्य कौन जान सकता है!’ ऐसा कहकर वह स्वजनों के साथ विलाप करने लगी और कलावती कन्या को गोद में लेकर रोने लगी।

कलावती कन्या भी अपने पति के नष्ट हो जाने पर दुखी हो गयी और पति की पादुका लेकर उनका अनुगमन करने के लिए उसने मन में निश्चय किया। कन्या के इस प्रकार के आचरण को देख भार्यासहित वह धर्मज्ञ साधु बनिया अत्यन्त शोक-संतप्त हो गया और सोचने लगा - या तो भगवान सत्यनारायण ने यह अपहरण किया है अथवा हम सभी भगवान सत्यदेव की माया से मोहित हो गये हैं।

अपनी धन शक्ति के अनुसार मैं भगवान श्री सत्यनारायण की पूजा करूंगा। सभी को बुलाकर इस प्रकार कहकर उसने अपने मन की इच्छा प्रकट की और बारम्बार भगवान सत्यदेव को दण्डवत प्रणाम किया। इससे दीनों के परिपालक भगवान सत्यदेव प्रसन्न हो गये।

भक्तवत्सल भगवान ने कृपापूर्वक कहा - ‘तुम्हारी कन्या प्रसाद छोड़कर अपने पति को देखने चली आयी है, निश्चय ही इसी कारण उसका पति अदृश्य हो गया है। यदि घर जाकर प्रसाद ग्रहण करके वह पुनः आये तो हे साधु बनिया तुम्हारी पुत्री पति को प्राप्त करेगी, इसमें संशय नहीं।

कन्या कलावती भी आकाशमण्डल से ऐसी वाणी सुनकर शीघ्र ही घर गयी और उसने प्रसाद ग्रहण किया। पुनः आकर स्वजनों तथा अपने पति को देखा। तब कलावती कन्या ने अपने पिता से कहा - ‘अब तो घर चलें, विलम्ब क्यों कर रहे हैं?’

कन्या की वह बात सुनकर वणिकपुत्र संतुष्ट हो गया और विधि-विधान से भगवान सत्यनारायण का पूजन करके धन तथा बन्धु-बान्धवों के साथ अपने घर गया। तदनन्तर पूर्णिमा तथा संक्रान्ति पर्वों पर भगवान सत्यनारायण का पूजन करते हुए इस लोक में सुख भोगकर अन्त में वह सत्यपुर बैकुण्ठलोक में चला गया।

पांचवा अध्याय

( shri satyanarayan bhagwan ki vrat katha in hindi - chapter 5 )

श्रीसूत जी बोले - श्रेष्ठ मुनियों! अब इसके बाद मैं दूसरी कथा कहूंगा, आप लोग सुनें। अपनी प्रजा का पालन करने में तत्पर तुंगध्वज नामक एक राजा था।

उसने सत्यदेव के प्रसाद का परित्याग करके दुख प्राप्त किया। एक बाद वह वन में जाकर और वहां बहुत से पशुओं को मारकर वटवृक्ष के नीचे आया। वहां उसने देखा कि गोपगण बन्धु-बान्धवों के साथ संतुष्ट होकर भक्तिपूर्वक भगवान सत्यदेव की पूजा कर रहे हैं।

राजा यह देखकर भी अहंकारवश न तो वहां गया और न उसे भगवान सत्यनारायण को प्रणाम ही किया।

पूजन के बाद सभी गोपगण भगवान का प्रसाद राजा के समीप रखकर वहां से लौट आये और इच्छानुसार उन सभी ने भगवान का प्रसाद ग्रहण किया। इधर राजा को प्रसाद का परित्याग करने से बहुत दुख हुआ।

उसका सम्पूर्ण धन-धान्य एवं सभी सौ पुत्र नष्ट हो गये। राजा ने मन में यह निश्चय किया कि अवश्य ही भगवान सत्यनारायण ने हमारा नाश कर दिया है।

इसलिए मुझे वहां जाना चाहिए जहां श्री सत्यनारायण का पूजन हो रहा था। ऐसा मन में निश्चय करके वह राजा गोपगणों के समीप गया और उसने गोपगणों के साथ भक्ति-श्रद्धा से युक्त होकर विधिपूर्वक भगवान सत्यदेव की पूजा की।

भगवान सत्यदेव की कृपा से वह पुनः धन और पुत्रों से सम्पन्न हो गया तथा इस लोक में सभी सुखों का उपभोग कर अन्त में सत्यपुर वैकुण्ठलोक को प्राप्त हुआ।

श्रीसूत जी कहते हैं - जो व्यक्ति इस परम दुर्लभ श्री सत्यनारायण के व्रत को करता है और पुण्यमयी तथा फलप्रदायिनी भगवान की कथा को भक्तियुक्त होकर सुनता है, उसे भगवान सत्यनारायण की कृपा से धन-धान्य आदि की प्राप्ति होती है।

दरिद्र धनवान हो जाता है, बन्धन में पड़ा हुआ बन्धन से मुक्त हो जाता है, डरा हुआ व्यक्ति भय मुक्त हो जाता है - यह सत्य बात है, इसमें संशय नहीं।

इस लोक में वह सभी ईप्सित फलों का भोग प्राप्त करके अन्त में सत्यपुर वैकुण्ठलोक को जाता है।

हे ब्राह्मणों! इस प्रकार मैंने आप लोगों से भगवान सत्यनारायण के व्रत को कहा, जिसे करके मनुष्य सभी दुखों से मुक्त हो जाता है।

कलियुग में तो भगवान सत्यदेव की पूजा विशेष फल प्रदान करने वाली है। भगवान विष्णु को ही कुछ लोग काल, कुछ लोग सत्य, कोई ईश और कोई सत्यदेव तथा दूसरे लोग सत्यनारायण नाम से कहेंगे।

अनेक रूप धारण करके भगवान सत्यनारायण सभी का मनोरथ सिद्ध करते हैं। कलियुग में सनातन भगवान विष्णु ही सत्यव्रत रूप धारण करके सभी का मनोरथ पूर्ण करने वाले होंगे।

हे श्रेष्ठ मुनियों! जो व्यक्ति नित्य भगवान सत्यनारायण की इस व्रत-कथा को पढ़ता है, सुनता है, भगवान सत्यारायण की कृपा से उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। हे मुनीश्वरों! पूर्वकाल में जिन लोगों ने भगवान सत्यनारायण का व्रत किया था, उसके अगले जन्म का वृतान्त कहता हूं, आप लोग सुनें।

महान प्रज्ञासम्पन्न शतानन्द नाम के ब्राह्मण सत्यनारायण व्रत करने के प्रभाव से दूसे जन्म में सुदामा नामक ब्राह्मण हुए और उस जन्म में भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया।

लकड़हारा भिल्ल गुहों का राजा हुआ और अगले जन्म में उसने भगवान श्रीराम की सेवा करके मोक्ष प्राप्त किया। महाराज उल्कामुख दूसरे जन्म में राजा दशरथ हुए, जिन्होंने श्रीरंगनाथजी की पूजा करके अन्त में वैकुण्ठ प्राप्त किया।

इसी प्रकार धार्मिक और सत्यव्रती साधु पिछले जन्म के सत्यव्रत के प्रभाव से दूसरे जन्म में मोरध्वज नामक राजा हुआ। उसने आरे सेचीरकर अपने पुत्र की आधी देह भगवान विष्णु को अर्पित कर मोक्ष प्राप्त किया।

महाराजा तुंगध्वज जन्मान्तर में स्वायम्भुव मनु हुए और भगवत्सम्बन्धी सम्पूर्ण कार्यों का अनुष्ठान करके वैकुण्ठलोक को प्राप्त हुए।

जो गोपगण थे, वे सब जन्मान्तर में व्रजमण्डल में निवास करने वाले गोप हुए और सभी राक्षसों का संहार करके उन्होंने भी भगवान का शाश्वत धाम गोलोक प्राप्त किया।

इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अन्तर्गत रेवाखण्ड में श्रीसत्यनारायणव्रत कथा का यह पांचवां अध्याय पूर्ण हुआ।


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Shri Satyanarayan Vrat Katha in Hindi font ( श्री सत्य नारायण व्रत कथा )

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shanidev chalisa lyrics

|| दोहा ||

जय गणेश गिरिजा सुवन, मंगल करण कृपाल। दीनन के दुख दूर करि, कीजै नाथ निहाल ।। 

जय जय श्री शनिदेव प्रभु, सुनहु विनय महाराज।  करहु कृपा हे रवि तनय, राखहु जन की लाज।।

॥ चौपाई ॥ ( Shani chalisa )

जयति जयति शनिदेव दयाला। करत सदा भक्तन प्रतिपाला।। 

चारि भुजा तनु श्याम विराजै। माथे रतन मुकुट छबि छाजै।। 

परम विशाल मनोहर भाला। टेढ़ी दृष्टि भृकुटि विकराला।। 

कुण्डल श्रवण चमाचम चमके। हिय माल मुक्तन मणि दमके।।

कर में गदा त्रिशूल कुठारा। पल बिच करैं अरिहिं संहारा।।

पिंगल, कृष्णों, छाया नन्दन। यम, कोणस्थ, रौद्र, दुखभंजन।।

सौरी, मन्द, शनी, दश नामा। भानु पुत्र पूजहिं सब कामा।।

जा पर प्रभु प्रसन्न ह्वैं जाहीं। रंकहुँ राव करैं क्षण माहीं ।।

पर्वतहू तृण होई निहारत। तृणहू को पर्वत करि डारत।।

राज मिलत बन रामहिं दीन्ह्यो। कैकेइहुँ की मति हरि लीन्ह्यो।।

बनहूँ में मृग कपट दिखाई। मातु जानकी गई चुराई।।

लखनहिं शक्ति विकल करिडारा। मचिगा दल में हाहाकारा।।

रावण की गतिमति बौराई। रामचन्द्र सों बैर बढ़ाई।।

दियो कीट करि कंचन लंका। बजि बजरंग बीर की डंका।।

नृप विक्रम पर तुहि पगु धारा। चित्र मयूर निगलि गै हारा।।

हार नौलखा लाग्यो चोरी। हाथ पैर डरवाय तोरी।।

भारी दशा निकृष्ट दिखायो। तेलिहिं घर कोल्हू चलवायो।।

विनय राग दीपक महं कीन्ह्यो। तब प्रसन्न प्रभु ह्वै सुख दीन्ह्यो।।

हरिश्चन्द्र नृप नारि बिकानी। आपहुं भरे डोम घर पानी ।।

तैसे नल पर दशा सिरानी । भूंजीमीन कूद गई पानी ।।

श्री शंकरहिं गह्यो जब जाई । पारवती को सती कराई ।।

तनिक विलोकत ही करि रीसा । नभ उड़ि गयो गौरिसुत सीसा ।।

पाण्डव पर भै दशा तुम्हारी । बची द्रौपदी होति उघारी ।।

कौरव के भी गति मति मारयो । युद्ध महाभारत करि डारयो ।।

रवि कहँ मुख महँ धरि तत्काला । लेकर कूदि परयो पाताला ।।

शेष देवलखि विनती लाई । रवि को मुख ते दियो छुड़ाई ।।

वाहन प्रभु के सात सजाना । जग दिग्गज गर्दभ मृग स्वाना ।।

जम्बुक सिंह आदि नख धारी । सो फल ज्योतिष कहत पुकारी ।।

गज वाहन लक्ष्मी गृह आवैं । हय ते सुख सम्पति उपजावैं ।।

गर्दभ हानि करै बहु काजा । सिंह सिद्धकर राज समाजा ।।

जम्बुक बुद्धि नष्ट कर डारै । मृग दे कष्ट प्राण संहारै ।।

जब आवहिं प्रभु स्वान सवारी । चोरी आदि होय डर भारी ।।

तैसहि चारि चरण यह नामा । स्वर्ण लौह चाँदी अरु तामा ।।

लौह चरण पर जब प्रभु आवैं । धन जन सम्पत्ति नष्ट करावैं ।।

समता ताम्र रजत शुभकारी । स्वर्ण सर्व सुख मंगल भारी ।।

जो यह शनि चरित्र नित गावै । कबहुं न दशा निकृष्ट सतावै ।।

अद्भुत नाथ दिखावैं लीला । करैं शत्रु के नशि बलि ढीला ।।

जो पण्डित सुयोग्य बुलवाई । विधिवत शनि ग्रह शांति कराई ।।

पीपल जल शनि दिवस चढ़ावत । दीप दान दै बहु सुख पावत ।।

कहत राम सुन्दर प्रभु दासा । शनि सुमिरत सुख होत प्रकाशा ।।

।। दोहा ।।

पाठ शनिश्चर देव को, की हों भक्त तैयार ।।

करत पाठ चालीस दिन, हो भवसागर पार ।।


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Shri Mukthi Naga Temple also called as Mukthi Naga Kshetra is a very important temple dedicated to the serpent diety, Naga devata.

The temple you see today is a newly built building, but the temple has a history of more than 200 years old.

As per legend, the Naga devata used to reside in a ant hill, also called as "Hutta" in local language and devotees used to make 9 pradakshinas around the anthill.

It is a belief that by doing this, their desires gets fulfilled with in 90 days.

People here also call this place as "Junjappana Bayalu" i.e Junjappa's Field.

The Mukti Naga temple is a temple complex of may other gods and goddesses.

You will find Sri Kaaryasiddhi (work fulfilling) Vinayaka temple which is dedicated to lord Ganesha.

Next to Mukti Naga temple is another temple dedicated to Lord Subramanya in Naga avatar.

On the left hand side of Sri Karya Siddhi Vinayaka temple, there's a huge monolithic statue of Shakthi Dhara Subrahmanya. This idol is about 21 feet tall and weighs around 56 tons.

Then are devi temples with in the tempe complex.

With in the temple complexes you will also find around 107 sculptures of Nagas are kept in a covered passage and with 1 large 7 hooded Naga at the center of the top row.

Mukthi Naga Temple

Even today, Devotees first do pradakshinas around the anthill, and then go to the Sri Karya Siddhi Vinayaka temple.

After which only they offer prayers in the Mukthi Naga temple.

There is a small temple office from where you can buy pooja tickets, prasadam and some literature related to the temple

History of Mukthi Naga Temple

According to the legend, the Dharmadikari Sri Subramanya Shastri, felt the divine presence at Kukke Subramanya.

After that, he began looking for a specific Naga shrine.

After some time, he came to this Junjappana Bayalu and realised that it was a significant location.

He then built this temple here.

However the balding you see today is the new building.

The main idol of Serpent God Mukthi Naga is around 16ft tall and it is one of the biggest monolithic Naga idols in India.

People believe that the Nava Devata or the serpent god has been guarding this region.

Muktinaga temple open timings

Monday 7:00 am - 7:00 pm
Tuesday 7:00 am - 7:00 pm
Wednesday 7:00 am - 7:00 pm
Thursday 7:00 am - 7:00 pm
Friday 7:00 am - 7:00 pm
Saturday 7:00 am - 7:00 pm
Sunday 7:00 am - 7:00 pm

Special Mukti Naga temple Puja offerings are provided on Sundays and Tuesdays.

Special Pooja's performed at Shri Muktinaga temple

  • Saparivara Seva
  • Ksheerabhisheka
  • Mahabhisheka
  • Sarpasamskara

Nagara Panchami most important festival celebrated here.

Sarpadosha Nivarana Poojas

  • Sarpa dosha parihara (overcome serpent curse) poojas,
  • Nagapratiste (install Naga Idol),
  • Ashlesha Bali,
  • Pradoshapooje, etc.

Shrines at Mukthi Naga Temple:

  1. Shri Kaaryasiddhi Vinayaka Temple
  2. Shri Aadi-Muktinaga Temple
  3. Shri Muktinaga Temple
  4. Shri Subramanya Temple
  5. Shri Patalamma Devi
  6. Shri Kalabhairava Temple
  7. Nagabana

How to reach Mukti Naga Temple

The temple is at a distance of 18Km's from Majestic bus station.

There is another attraction near this place, called as the Big Banyan Tree and the distance from Big Banyan Tree is about 3KM.

The temple is very near to Ramohalli bus stand - approx 1 KM

If you are travelling by car then you need to cross Kanegri ( Mysore Road) and take Big Banyan Tree Road - you need to travel for around 5Kms to reach this temple.

You can also take public transport to reach the temple. You can take BMTC bus 227Y from Majestic bus stop to reach this temple.

You can also take 401KB which stops in front of the temple.

Please do check the route no and timings again as they might change as well.

Address of shree Mukti Naga Temple

Shri Mukti Naga Kshetra , Ramohalli,

Big Banyan Tree Road, Kengeri, Bangalore - 560 060


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Shri Mukthi Naga Temple, Ramohalli, Bangalore

Argala stotram ( अथार्गलास्तोत्रम् ) - श्री दुर्गा सप्तशती में देवी कवच के बाद अर्गला स्तोत्र पढ़ने का विधान है। इस पोस्ट में हम Argala stotram lyrics in hindi पढ़ेंगे ।

अर्गला कहते हैं अग्रणी या अगड़ी।

Argala stotram (अर्गला स्तोत्र ) का पाठ दुर्गा कवच के बाद और  कीलक स्रोत के पहले किया जाता है। यह देवी माहात्म्य के अंतर्गत किया जाने वाला स्तोत्र सारी बाधाओं को दूर करने वाला।

किसी भी कार्य की सिद्धि के लिए आवश्यक है ।

इस स्तोत्र का पाठ नवरातत्रि के अलावा देवी पूजन या सप्तशती पाठ के साथ भी किया जाता है। अर्गला स्तोत्र अमोघ है। रूप, जय, यश देने वाला। नवरात्रि में इसको पढ़ने का विशेष विधान और महत्व है।



कैसे करें अर्गला स्तोत्र - How to do Argala stotram

1. सरसो या तिल के तेल का दीपक जलाएं

2. चामुण्डा देवी माँ का ध्यान करें।

3. देवी भगवती के अर्गला स्तोत्र का संकल्प लें और अपनी इच्छा देवी के समक्ष व्यक्त करें

4. अर्गला स्तोत्र में मंत्र शक्ति का प्रयोग करें

5. अर्गला स्तोत्र का यथा संभव तीन बार या सात बार पाठ करें

6. कुछ मंत्र ऐसे हैं, जिनका वाचन करते हुए आप यज्ञ भी कर सकते हैं।

7.काले तिल और शहद से यज्ञ की आहूति दे ।

8. अर्गला स्तोत्र का प्रात: काल या मध्य रात्रि पर पाठ करें।

सिद्ध मंत्र

रक्त बीज वधे देवि चण्ड मुण्ड विनाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। ( शत्रु दमन के लिए )

वन्दि ताङ्घ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्य दायिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। ( सौभाग्य के लिए)

विनियोग- ॐ अस्य श्री अर्गलास्तोत्रमन्त्रस्य विष्णुर्ऋषिः अनुष्टुप छन्दः श्रीमहालक्ष्मीर्देवता श्रीजगदम्बाप्रीतये सप्तशती पाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः ।

Argala stotram lyrics in hindi

ॐ नमश्चण्डिकायै

ऊं जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी ।
दुर्गा शिवा क्षमा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते ।1)
जय त्वं देवी चामुण्डे जय भूतार्तिहारिणी
जय सर्वगते देवी कालरात्रि नमोSस्तु ते। 2।

ॐ चंडिका देवी को नमस्कार है। 
मार्कण्डेय जी कहते हैं - जयन्ती, मंगला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री, स्वाहा और स्वधा - इन नामों से प्रसिद्ध जगदम्बिके! तुम्हें मेरा नमस्कार हो। देवि चामुण्डे! तुम्हारी जय हो। सम्पूर्ण प्राणियों की पीड़ा हरने वाली देवि! तुम्हारी जय हो। सब में व्याप्त रहने वाली देवि! तुम्हारी जय हो। कालरात्रि! तुम्हें नमस्कार हो।।

मधुकैटभविद्राविविधातृ वरदे नमः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।३।।
महिषासुरनिर्णाशि भक्तनाम सुखदे नमः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। ४।।

मधु और कैटभ को मारने वाली तथा ब्रह्माजी को वरदान देने वाली देवि! तुम्हे नमस्कार है। तुम मुझे रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान) दो, जय (मोह पर विजय) दो, यश (मोह-विजय और ज्ञान-प्राप्तिरूप यश) दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो।। महिषासुर का नाश करने वाली तथा भक्तों को सुख देने वाली देवि! तुम्हें नमस्कार है। तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।।३-४।।

रक्तबीजवधे देवि चण्डमुण्डविनाशिनी।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। ५ ।।
शुम्भस्यैव निशुम्भस्य धूम्राक्षस्य च मर्दिनी।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। ६।।

रक्तबीज का वध और चण्ड-मुण्ड का विनाश करने वाली देवि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। शुम्भ और निशुम्भ तथा धूम्रलोचन का मर्दन करने वाली देवि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।।५-६।।

वन्दिताङ्घ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्यदायिनी।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। ७।।
अचिन्त्यरूपचरिते सर्वशत्रुविनाशिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। ८।।

सबके द्वारा वन्दित युगल चरणों वाली तथा सम्पूर्ण सौभग्य प्रदान करने वाली देवि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। देवि! तुम्हारे रूप और चरित्र अचिन्त्य हैं। तुम समस्त शत्रुओं का नाश करने वाली हो। तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।।७-८।।

नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चण्डिके दुरितापहे।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। ९।।
स्तुवद्भ्यो भक्तिपूर्वं त्वाम चण्डिके व्याधिनाशिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। १०।।

पापों को दूर करने वाली चण्डिके! जो भक्तिपूर्वक तुम्हारे चरणों में सर्वदा (हमेशा) मस्तक झुकाते हैं, उन्हें रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। रोगों का नाश करने वाली चण्डिके! जो भक्तिपूर्वक तुम्हारी स्तुति करते हैं, उन्हें तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।।९-१०।।

चण्डिके सततं ये त्वामर्चयन्तीह भक्तितः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। ११।।
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। १२।।

चण्डिके! इस संसार में जो भक्तिपूर्वक तुम्हारी पूजा करते हैं उन्हें रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। मुझे सौभाग्य और आरोग्य (स्वास्थ्य) दो। परम सुख दो, रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।।११-१२।।

विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। १३।।
विधेहि देवि कल्याणम् विधेहि परमां श्रियम।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। १४।।

जो मुहसे द्वेष करते हों, उनका नाश और मेरे बल की वृद्धि करो। रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। देवि! मेरा कल्याण करो। मुझे उत्तम संपत्ति प्रदान करो। रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। १३-१४।।

सुरसुरशिरोरत्ननिघृष्टचरणेम्बिके।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। १५।।
विद्यावन्तं यशवंतं लक्ष्मीवन्तं जनं कुरु।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। १६।।

अम्बिके! देवता और असुर दोनों ही अपने माथे के मुकुट की मणियों को तुम्हारे चरणों पर घिसते हैं तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। तुम अपने भक्तजन को विद्वान, यशस्वी, और लक्ष्मीवान बनाओ तथा रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।।१५-१६।।

प्रचण्डदैत्यदर्पघ्ने चण्डिके प्रणताय मे।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। १७।।
चतुर्भुजे चतुर्वक्त्र संस्तुते परमेश्वरि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। १८।।

प्रचंड दैत्यों के दर्प का दलन करने वाली चण्डिके! मुझ शरणागत को रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। चतुर्भुज ब्रह्मा जी के द्वारा प्रशंसित चार भुजाधारिणी परमेश्वरि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।।१७-१८।।

कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वत भक्त्या सदाम्बिके।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। १९।।
हिमाचलसुतानाथसंस्तुते परमेश्वरि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। २०।।

देवि अम्बिके! भगवान् विष्णु नित्य-निरंतर भक्तिपूर्वक तुम्हारी स्तुति करते रहते हैं। तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। हिमालय-कन्या पार्वती के पति महादेवजी के द्वारा होने वाली परमेश्वरि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।।१९-२०।।

इन्द्राणीपतिसद्भावपूजिते परमेश्वरि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। २१।।
देवि प्रचण्डदोर्दण्डदैत्यदर्पविनाशिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। २२।।

शचीपति इंद्र के द्वारा सद्भाव से पूजित होने वाल परमेश्वरि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। प्रचंड भुजदण्डों वाले दैत्यों का घमंड चूर करने वाली देवि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।।२१-२२।।

देवि भक्तजनोद्दामदत्तानन्दोदये अम्बिके।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।। २३।।
पत्नीं मनोरमां देहिमनोवृत्तानुसारिणीम्।
तारिणीं दुर्ग संसारसागरस्य कुलोद्भवाम् ।। २४।।

देवि! अम्बिके तुम अपने भक्तजनों को सदा असीम आनंद प्रदान करती हो। मुझे रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। मन की इच्छा के अनुसार चलने वाली मनोहर पत्नी प्रदान करो, जो दुर्गम संसार से तारने वाली तथा उत्तम कुल में जन्मी हो।।२३-२४।।

इदं स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः।
स तु सप्तशती संख्या वरमाप्नोति सम्पदाम्। ॐ ।। २५।।

जो मनुष्य इस स्तोत्र का पाठ करके सप्तशती रूपी महास्तोत्र का पाठ करता है, वह सप्तशती की जप से मिलने वाले श्रेष्ठ फल और प्रचुर संपत्ति को प्राप्त करता है।

।। श्रीमार्कण्डेयपुराणे अर्गलास्तोत्रं सम्पूर्णम् ।।


Argala stotram ( अथार्गलास्तोत्रम् ) – Argala stotram lyrics in hindi

To all our readers, we bring for you Shri Vishnu Aarti - Om jai jagdish hare aarti. We all many a times need the lyrics.

In this post Shri Vishnu Aarti we bring you the lyrics. The font is in english, but the reading in in Hindi. That is it is written in english font but when you read it it is in hindi!

Jai Shri Hari , Jai Bhagwan Vishnu - Hare Rama - Hare Krishna !

Shri Hari, Shri Vishnu Aarti

Om jai jagdish harey, Swami jai jagdish harey

Bhagt jano ke sankat, chan mein door karey

Om jai jagdish harey , Swami jai jagdish harey ||

Jo Dhiyavay phal pavay dukh binase man ka Swami dukh binase man ka

Sukh Sampati ghar aavey kasht mitay tan ka

Om jai jagdish harey , Swami jai jagdish harey ||

Mat Pita tum mere, sharan pau mai kisaki Swami sharan pau kisaki

Tum bin aur na duja aash karoo jisaki

Om jai jagdish harey , Swami jai jagdish harey ||

Tum pooran parmatma tum antaryami Swami tum antaryami

Par Brahm parmeshwar tum sabke swami

Om jai jagdish harey , Swami jai jagdish harey ||

Tum karuna ke sagar tum palan karta Swami tum palan karta

Mai murakh kul kami kripa karo bharta

Om jai jagdish harey , Swami jai jagdish harey ||

Tum ho ek agochar sabh ke pranpati Swami sabh ke pranpati

Kisa bid milhu dayamay tumko mae kumati

Om jai jagdish harey , Swami jai jagdish harey ||

Din Bandu dukh harta tum thakur mere Swami tum thakur mere

Apne hath uthao, apnay charan lagao Dwar khada tere

Om jai jagdish harey , Swami jai jagdish harey ||

Vishay vikar mitao pap haro deva Swami pap haro deva

Shardha Bhakti Badao, Santan ki sewa

Om jai jagdish harey , Swami jai jagdish harey ||

Om jai jagdish harey, Swami jai jagdish harey

Bhagt jano ke sankat, shan mein door karey

Om jai jagdish harey , Swami jai jagdish harey ||


Interested in Sri Satyanarayan Vrat Ktha - Click here

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Vishnu Aarti – Om jai jagdish hare aarti

Dear readers in this article we bring to you Shri Satyanarayan Aarti - Sri Satyanarayan ji ki aarti and Satyanarayan pooja vidhi. The reading will be in Hindi, but the font is in english.

Hope this article Satyanarayan Aarti - Sri Satyanarayan ji ki aarti and Satyanarayan pooja vidhi is helpful to you.


Shri Satyanarayan pooja vidhi

Sri Satyanarayan Vrat karney wale

  1. Purnima, sankrant ya ekadasi ke din vrat karen
  2. Sham ko snan adi se nivrit hokar, puja sthaan mein aasan par baithen
  3. Shri Ganesh, Gauri, Varun, Vishnu adi Nav Devtaun ka dhyan karen aur pujan karey
  4. Phir sankalp karey ki mainShri Satyanarayan Swami ka pujan tatha shravan sadaiva karoonga.
  5. Pushp haathon mein lekar, Shri Satyanarayan Swami ka dhyan karey.
  6. Pushp, dhoop, deep, naivaidya adi se yukt hokar stuti karey.
  7. ‘Hey Bhagwan, mainey shrada poorvak phal, jal, adi sab samagri aapko arpan ki hai, isey sweekar keejiye.
  8. Aapdaon se meri raksha keejiye. Mera aapko baarambar namaskar hai.
  9. Iske baad Shri Satyanarayan ki katha padey athwa shravan karey. ( Neeche sri satyanarayan vrat katha ka link diya hai )

Please follow Shri Satyanarayan pooja vidhi as given above and for Katha please click on the link below:

Sri satyanarayan vrat katha

https://mytempletrips.in/shri-satyanarayan-vrat-katha-in-english-font/

After Shri Satyanarayan pooja vidhi, you will find Sri Satyanarayan Aarti as below:

Satyanarayan Aarti

Please find below Sri Satyanarayan ji ki Aarti. As mentioned, the reading is in hindi, but the font is in english.

Sri Satyanarayan ji ki Aarti

Jai Lakshmi Ramana, Swami Jai Lashmi Ramana, Satyanarayan Swami, Jan Patak Harana, Jai Lakshmi Ramana ||

Ratan Ja Rat Singhasan, Adhbut Chabee Rajey Narad Kahat Niranjan, Ghanta dhun bhajey Jai Lakshmi Ramana ||

Praghat Bhaye Kali Karan, Dwaj Ko Daras Diya Budha Brahman Bankey, Kanchan Mahal Kiya Jai Lakshmi Ramana ||

Durbal Bhil Kathier, Jan Par Kripa Karey Chandra Choor Ik Raja, Jinaki Vipat Hare Jai Lakshmi Ramana ||

Vayesh Manorath Payo, Shradha Uj Dini So Fal Bhogyo Prabhji, Fer Ustati Kini Jai Lakshmi Ramana ||

Bhav Bhagti Ke Karan, Chhin Chhin Roop Dharya Sharda Dharan Kini, Tin Ka Karj Sarya Jai Lakshmi Ramana ||

Gwal Bal Sang Raja, Ban Mein Bhagti Karey Man Vanchit Fal Dino, Deen Dayal Harey Jai Lakshmi Ramana ||

Charhat Prasad Sawayo, Kadali Fal Mewa Doop Dheep Tulsi Se, Raje Sat Deva Jai Lakshmi Ramana ||

Shri Satya Narayan Ji Ki Aarti jo koi gaavey Kahat Shianand Swami Man Van Chit Fal Paavey Jai Lakshmi Ramana ||


Satyanarayan Aarti – Sri Satyanarayan ji ki aarti and Satyanarayan pooja vidhi ( In English font )

We all know about, Shri Satyanarayan Vrat Katha, being one of the most popular katha in Hinduism.

One who observes Shri Satyanarayan Vrat Katha with full devotion and trust is likely to accomplish all his wishes.

According to our shastras, hearing the Satyanarayan Katha during the Kalyuga bears immense fruit.

Lord Vishnu in his appearance as Lord Satyanarayan is worshipped in this katha.

  • Satya denotes truth,
  • Nar denotes a man, and
  • Ayan denotes a location.

Satyanarayan is the name given to the spot in man where truth resides. The 'Satyanarayan katha' and 'vrat' assist us in overcoming vicissitudes.

Shri Satyanarayan Vrat Katha - Pratham Adhyaya

Ek Samay Nem Sharanya Tirth mein Saunik Adi Athaasi Hazaar Rishyo ne Shri Sutji se poocha –”Hey Prabhu, Is Kalyug mein Vaid-Vidya rahit manushyo ko prabhu Bhakti kis prakar milaygi tatha unka udhar kaisey hoga?

Isliye hey muni shreshta, koi aisa tap kahiye jis se thodey samay mein punya prapt ho tatha mano vanchit fal miley.”

Sarvashastra ghyata Shri Sutji boley, “Hey Vaishnavo mein pujya – aap sab ne sarva praniyo ke hit ki baat poochi hai.

Ab mein us shreshta vrat ko aap logo mein kahoonga, jis vrat ko Narad ji ne LakshmiNarayan se poocha tha aur Shri LakshmiPati ne Muni Shreshta Narad se kaha tha –so dhyan se suniye.

Ek samay, Yogiraj Narad ji doosro ke hit ki ichcha se, anek lokon mein ghoomtey huey mrityulok mein aa pahunchey.

Vahan bahut yoniyon mein janmey huey praya sabhi manushyon ko apne karmo ke dwara anek dukho se peedit dhek kar kis yatna ke karney se nischay hi inkey dukho ka nash ho sakega, aisa man mein sochkar Vishnulok ko gaye.

Vahan shwet varna aur char bhujaon wale devon ke eersh Narayan ko (jinkey haaton mein shanka, chakra, gada aur padma they, tatha vanmala pahney huey they) dekhkar stuti karney lagey.

“Hey Bhagwan, aap atyant shakti se samparn hai. Man tatha vani bhi aapko nahi pa sakti, aapka aadi, madhya aur ant nahin hai, nirgun swaroop shrishti ke aadi bhoot va bhakto ke dukho ko nasht karney wale hai.

Aapko mera namaskar hai.”

Naradji se is prakaar stuti sunkar Vishnu Bhagwan boley ki “Hey Munishreshta – Aapke man mein kya hai?

Aapka yahan kis kaam ke liye aagman hua hai? Nisankoj kaho.” Tab Naradmuni boley, “Mrityu lok mein sab manushya jo anek yoniyo mein paida huey hai, apne apne karmo ke dwara anek prakaar ke dukho se dukhi ho rahey hai.

Hey Nath muj par daya rakhtey hai to batlaeay ki un manushyo ke sab dukh thodey se hi prayatna se kaisey door ho saktey hai?” Shri Vishnu Bhagwanji boley ki “Hey Narad, Manushyo ki bhalai ke liye tumne yeh bahut achchi baat poochi.

Jis kaam ke karney se manushya moh se choot jaata hai, vah mein kehta hoo suno. Bahut punya ka deney wala, swarg tatha manushya lok dono mein durlab ek vrat hai. Aaj mein premvash hokar tumse kehta hoo.

Shri Satyanarayanji ka vrat achchi tarah vidhan purvak karke manushya turant hi yahan sukh bhogkar marne par moksh ko prapt hota hai.”

Shri Vishnu Bhagwan ke vachan sunkar Narad ji ne poocha ki us vrat ka kya fal hai, kya vidhan hai, aur kisne yeh vrat kiya hai aur kis din yeh vrat karna chahiye, kripa karke vistaar se bataiye.

Shri Vishnu Bhagwan boley, “Dukh shok aadi ko door karne wala, dhan dhanya ko badane wala, saubhagya tatha santaan ko dene wala, sab sthano par vijaye karne wala, Shri Satyanarayan Swami hai.

Bhakti aur shradha ke saat kisi bhi din, manushya Shri Satyanarayan ki sham ke samay, Brahmano aur bandhuo ke saath dharmaparayan hokar puja karey, bhakti bhav se savaya prasad de.

Gehu ke abhaav mein saathi ka churan, shakar tatha gud le aur sabh bhakshan yogya padarath jama karke savaye arpan kar devey tatha bandhuo sahit bhojan karavey.

Bhakti ke saath swayam bhojan karey.

Nritya aadi ka aachran kar Shri Satyanarayan Bhagwan ka smaran kar samast samai vyateet karey.

Is tarah ka vrat karney par manushyo ki ichcha nischay hi poori hoti hai. Vishesh kar kal kaal mein bhoomi par yahi moksh ka saral upaya hai.

Shri Satyanarayan Vrat Katha - Dvitiya Adhyaya ( Scond Chapter )

Sutji boley “Hey Rishyo! Jisne pehle samay mein is vrat ko kiya hai uska itihaas kehta hoo, dhyan se suno.”

Sunder Kashipuri nagari mein ek ati nirdhan Brahman rehta tha. Vah bookh aur pyaas se bechain hua nitya hi prithvi par ghumta tha.

Brahmano ko prem karne wale Bhagwan ne Brahman ko dukhi dekhkar, boodey Brahman ka roop dhar uske paas jaakar aadar ke saath poocha,

“Hey Vipra! Tu nitya dukhi hua prithvi par kyo ghumta hai? Hey shreshta Brahman! Yeh sab mujse kaho, mein sunana chahata hoo.” Brahman bola “Mein nirdhan Brahman hoo, biksha ke liye prithvi par firta hoo.

Hey Bhagwan, yadi aap iska upaya jaante ho to kripa karke batao.” Vridh Brahman bola ki Satyanarayan Bhagwan manovanchit fal ko dene wala hai.

Isliye hey Brahman tu unka pujan kar, jiske karne se manushya sab dukho se mukt hota hai. Brahman ko vrat ka vidhan batakar budey Brahman ka roop dharan karne wale Satyanarayan Bhagwan antardhyan ho gaye.

Jis vrat ko vridh Brahman ne batlaya hai, mein usko karoonga. Yeh nischay karne par usey raat mein neend bhi nahi aayi. Vah saverey utha.

Shri Satyanarayan ke vrat ke nischay kar biksha ke liye chala. Us din usko biksha mein bahut sa dhan mila jis se bandhu-baandhavo ke saath usne Shri Satyanarayan ka vrat kiya.

Iske karne se vah brahman dukho se chutkar anek prakaar ki sampatiyo se yukt hua. Us samay se vah Brahman har maas vrat karne laga.

Is tarah Satyanarayan Bhagwan ke is vrat ko jo karega vah sab papo se chutkar mauksh ko prapt hoga.

Aagey jo prithvi par Satyanarayan vrat karega, vah manushya sab dukho se chut jayega. Is tarah Naradji ne Shri Narayan ka kaha hua yeh vrat tumse kaha. Hey Vipro! Mein ab aur kya kahu?

Rishi boley “Hey Munishwaro! Sansar mein is Brahman se sunkar kis kis ne is vrat ko kiya, hum vah sab sunana chahatey hain.

Iske liye humarey man mein shradha hai. Sutji boley “Hey Muniyo! Jis Jisne us vrat ko kiya hai vah sab suno.

Ek samay vah Brahman, dhan aur aishwarya ke anusaar bandhu-baandhavo ke saath vrat karne ko tayar hua.

Usi samay ek lakdi bechney wala ek buda aaya aur bahar lakadiyo ko rakhkar Brahman ke makan mein gaya.

Pyaas se dukhi lakadharey ne Brahman ko vrat kartey dekhkar namaskar karkey poochney laga ki aap yeh kya kar rahey hai aur iskey karney se kya fal milta hai? Kripa karkey mujse kahiye.

Brahman ne kaha, “Sab manokamnao ko poora karne wala, yeh Satyanarayan ka vrat hai. Iski hi kripa se mere yahan dhan-dhanya aadi ki vridhi hui hai.”

Brahman se is vrat ke barey mein jaankar lakadhara bahut prasan hua. Charnamrit lekar aur prasad khaney ke baad, apne ghar ko gaya.

Lakadharey ne man mein is prakaar ka sankalp kiya ki aaj gram mein lakdi bechney se jo dhan mujhe milega usi se Shri Satyanarayan Bhagwan ka uttam mein vrat karoonga.

Yeh man mein vichar kar, budha lakadhara lakadiya sar par rakhkar Sundernagar mein gaya. Us roz vahan par usey un lakadiyo ka daam pehle dino se chauguna mila.

Tab budha lakadhara daam lekar aur ati prasan hokar pakkey kele ki fali, shakar, ghee aur dahi, gehu ka chun ityadi Satyanarayan Bhagwan ki vrat ki kul samagriyo ko lekar apne ghar gaya.

Phir usne apne sab bhaiyo ko bulakar vidhi ke saath Bhagwan ji ka pujan aur vrat kiya.

Us vrat ke prabhav se budha lakadhara dhan, putra, aadi se yukt hua aur sansar ke samast sukh bhogkar vaikunth ko chala gaya.

Shri Satyanarayan Vrat Katha - Tritya Adhyaya ( third Chapter )

Sutji bole, “Hey shresta muniyo! Ab aagey ki katha kehta hoo- suno. Pehle samay mein Ulkamukh naam ka ek budhimaan raja tha.

Vah satyavakta aur jeetendra tha. Pratidin dev sthano mein jaata tatha garibo ko dhan dekar unkey kasht door karta tha.

Uski patni kamal ke samaan mukh wali aur sati sadhvi thi. Badrashila nadi ke tath par un dono ne Satyanarayan Bhagwan ka vrat kiya.

Usi samay mein vahan ek sadhu vaishya aaya. uske paas vyapaar ke liye bahut sa dhan tha.

Nav ko kinarey par thehra kar raja ke paas gaya aur raja ko vrat kartey huey dekh kar vinay ke saath poochney laga–Hey rajan! Bhaktiyukt chit se aap kya kar rahey hai? Meri bhi sunaney ki ichcha hai.

Yeh aap mujhe bataea.

Raja bola “Hey Sadhu! Apne baandhavo ke saath putradi ke prapti ke liye Mahashaktivaan Satyanarayan Bhagwan ka vrat va pujan kiya ja raha hai.

Raja ke vachan sunkar Sadhu aadar ke saath bola, “Hey rajan! Mujko iska sabh vidhan kahiye, mein bhi aapke katha anusar is vrat ko karoonga.

Meri bhi koi santaan nahi hai aur is se nischay hi hogi. Raja se sabh vidhan sunkar, vyapaar se nivrit hokar, aanand ke saath ghar gaya.

Sadhu ne apni stri se santaan dene wale us vrat ka samachar sunaya aur kaha ki jab meri santaan hogi tab mein is vrat ko karoonga.

Sadhu ne aise vachan apni stri Lilawanti ko kahey. Kuch samay baad, Lilawanti garbawati hui tatha dasve mahiney mein uske ek sunder kanya ka janam hua jiska naam Kalawanti rakha gaya.

Tab Lilawanti ne meethe shabdo mein apne pati se kaha ki aapne jo sankalp kiya hua tha ki Bhagwan ka vrat karoonga, ab aap usey kariye. Sadhu bole, Hey priya! Iske vivah par karoonga.

Apni patni ko aashvaasan dekar voh nagar ko gaya. Kalawanti pitragrah mein vridhi ko prapt ho gayi.

Sadhu ne jab nagar mein sakhiyo ke saath apni putri ko dekha to turant hi doot ko bulakar kaha ki putri ke vastey koi suyogya var dekh kar laao. Sadhu ki aagya paakar doot Kanchan

Nagar pahuncha aur vahan par badi khoj kar aur dekhbhaal kar ladki ke vaastey suyogya vanik putra ko le aaya.

Us suyogya ladke ko dekh kar, Sadhu ne apne bhai-bandhuo sahit prasan-chit apni putri ka vivah uske saath kar diya. Kintu, durbhagya se vivah ke samay bhi us vrat ko karna bhool gaya.

Tab Shri Bhagwan krodhit ho gaye aur usey shrap diya ki voh daarun dukh prapt hoga.

Apne kaam mein kushal sadhu baniya apne jaamata sahit samudra ke samip Ratanpur nagar pahuncha.

Aur vahan dono sasur jamai, Chandraketu Raja ke nagar mein pahunche aur vyapaar karney lagey.

Ek roz, Bhagwan Satyanarayan ki maya se prerit koi chor raja ka dhan churakar sheegra ja raha tha kintu peechey se raja ke dooton ko aatey dekh kar, chor ne ghabrakar bhaagtey-bhaagtey dhan ko vahin chup-chap rakh diya jahan vah dono sasur jamai thehrey huye they.

Doono ne us sadhu vaishya ke paas raja ke dhan ko rakha dekh kar dono ko baandhkar le gaye aur prasanta se daudtey huey raja ke samip jaakey boley, “Yeh do chor hum pakad kar laye hai, dekh kar agya de.”

Raja ki agya se unko kathin kaaravaas mein daal diya aur unka dhan raja ne cheen liya. Usi shrap dwara uski patni bhi ghar par bahut dukhi hui aur ghar par jo dhan rakha tha chor churakar le gaye.

Sharirik va mansik peeda mein bookh va pyaas se ati dukhit ho ann ki chinta mein, Kalawanti ek Brahman ke ghar gaye.

Vahan usne Satyanarayan vrat hotey dekha. Vahan usne katha suni aur prasad grahan kar raat ko ghar aayi.

Mata ne Kalawanti se kaha, “Hey putri! Din mein kahan rahi va tere man mein kya hai?”

Kalawanti boli, “Hey mata! maine ek Brahman ke ghar Satyanarayan ka vrat dekha.” Kanya ka vachan sunkar, Lilawanti Satyanarayan Bhagwan ke pujan ki tayari karney lagi.

Lilawanti ne parivar aur bandhuo sahit Bhagwan ka pujan kiya aur yeh var maanga ki mere pati aur daamaad sheegra hi aa jaavey aur prathna ki ki hum sab ka apraadh shama karo.

Satyanarayan Bhagwan is vrat se santusht ho gaye aur Raja Chandraketu ko swapna mein dekhayee diye aur kaha ki “Hey rajan! Dono bandhi vaishyon ko prat hi chod do aur unka sab dhan jo tumne grahan kiya hai de do nahi to tera dhan, rajya, putradi sab nasht kar doonga.”

Raja ko aisa vachan sunakar Bhagwan antardhyan ho gaya. Prat-Kaal Raja Chandraketu ne sabha mein apna swapna sunaya aur dono vanik putro ko kaid se mukt kar sabha mein bulaya.

Dono ne aatey hi Raja ko namaskar kiya. Raja meethey vachno se boley, “Hey Mahanubhavo!

Bhagyavash aisa katheen dukh prapt hua hai, ab koi bhay nahi hai.

” Aisa kahkar Raja ne unko naye-naye vastrabushan pehnaye tatha unka jitna dhan liya tha us se duna dhan dilvakar vida kiya. Dono vaishya apne ghar ko chal diye.

Shri Satyanarayan Vrat Katha - Chaturtha Adhyaya ( Fourth Chapter )

Sutji boley, “Vaishya ne mangalachar karke yatra aarambh ki aur apne nagar ko chala.

Unkey thodi door pahunchney par dandi veshdhari Satyanarayanji ne un se poocha, “Hey sadhu! teri naav mein kya hai?

Abhimani vaanik hasta hua bola, “Hey dandi, aap kyon poochtey ho? Kya dhan lene ki ichcha hai?

Meri naav mein to bel tatha pattey adi bharey hai. Vaishya ka kathor vachan sunkar, Bhagwan ne kaha ki tumhara vachan satya ho.

Aisa kahkar dandi vaha se chaley gaye aur kuch door jaakar samudra ke kinarey baith gaye.

Dandi ke jaaney par vaishya ne nitya kriya karne ke baad naav ko oonchi uthi dekh achamba kiya tatha naav mein bel patradi dekh murchit ho gir pada.

Phir murcha khulney par bahut shok karne laga. Tab uska daamaad bola ki aap shok na karey, yeh dandi ka shrap hai.

Aapko sharan mein chalna chahiye tabhi hamari manokamna poori hogi. Damad ke vachan sunkar vah dandi ke paas pahuncha.

Bhakti bhav se namaskar kar bola, “Maine jo aap se asatya vachan kahey they us ko shama karo, aisa kahkar vah mahan shokatur ho roney lagey.

Dandi Bhagwan boley, “Hey vanik putra! Meri aagya se tumhe baar-baar dukh prapt hua hai. Tu meri puja se vimukh hua hai.”

Sadhu bola, “Hey Bhagwan! Aapki maya se mohit gyani aapke roop ko nahi jaantey, tab mein agyani kaise jaan loo?

Aap prasan hoiay, mein saamarth ke anusaar aapki puja karoonga. Meri raksha karo aur pehle ke samaan, nauka mein dhan bhar do.” Un dono ke bhaktiyukt vachan sunkar Bhagwan prasan ho gaye.

Uski ichanusar var dekar antardhyan ho gaye. Tab unho ne naav par aakar dekha ki naav dhan se paripurn hai. Phir vah Bhagwan Satyanarayan ka pujan kar saathiyo sahit apne nagar ko chala. jab vah apne nagar ke nikat pahuncha tab doot ko ghar bheja.

Doot ne sadhu ke ghar jakar, uske stri ko namaskar karke kaha ki sadhu apne daamaad sahit is nagar ke samip aa gaye hai.

Aisa vachan sunkar Lilawanti ne bade harsh ke saath Bhagwan Satyanarayan ka pujan kar putri se kaha mein apne pati ke darshano ko jaati hoo, tu karya purna karke sheegra aana.

Mata ke vachan sunkar Kalawanti prasad chhodkar pati ke paas gaye. Prasad ki avagya ke karan Bhagwan Satyanarayan ne rusht hokar uske pati ko naav sahit pani mein duba diya. Kalawanti apne pati ko na dekhkar roti hui zameen par gir gayi.

Is tarah naav ko dooba hua tatha kanya ko rota dekh sadhu dukhit ho bola, “Hey Prabhu! Mujse ya mere parivar se jo bhool hui usey shama karo.

Uske deen vachan sunkar Bhagwan Satyanarayan prasan ho gaye aur aakashvani hui. “Hey Sadhu! Teri kanya mere prasad ko chhodkar aayi hai, isliye iska pati adrishya hua hai. Yadi woh ghar jaakar prasad khaakar lautey to isey pati avashya milega.

Aakashwani se aisa sunkar, Kalawanti ne ghar pahunchkar prasad khaaya. Phir us ne aakar pati ke darshan kiye, tab vaishya parivar ke sab log prasan huey.

Phir sadhu ne baandhavo sahit Bhagwan Satyanarayan ka vidhi poorvak pujan kiya. Us din se har purnima va sankrant ko Bhagwan Satyanarayan ka pujan karne laga.

Phir is lok ka sukh bhogkar swarg ko chala gaya.

Shri Satyanarayan Vrat Katha - Panham Adhyaya ( Fifth Chapter )

Sutji boley, “Hey Rishyo! Mein aur bhi katha kehta hoo, suno. Praja palan mein leen, Tungadhwaj naam ka raja tha. Usne bhi Bhagwan ka prasad tyag kar bahut dookh paaya.

Ek samay, vanmein ja karke pashuo ko maarkar bud ke ped ke neechey aaya. Us ne bhaktibhav se gwalo ko baandhavo sahit Bhagwan Satyanarayan ka pujan karte dekha.

Raja dekhkar bhi, abhimaan vash na vahan gaya, na namaskar kiya. Jab gwalo ne Bhagwan ka us ke saamne prasad rakha, to vah prasad ko tyag kar apni sunder nagri ko chala gaya.

Vahan us ne apna sab kuch nasht paaya. To vah samaj gaya ki yeh sabh kuch prasad ke niradhar ke vajai se hua hai.

Tab vah, vishwas kar gwalo ke samip gaya aur vidhi poorvak pujan kar prasad khaaya.

Bhagwan Satyanarayan ki kripa se sab jaisa tha vaisa hi ho gaya. Tatha sukh bhogkar marne par swarg lok mein gaya.

Jo manushya is param durlab vrat ko karega, Bhagwan ki kripa se usey dhan dhanya ki prapti hogi. Nirdhan dhani hota hai. Bandhi bandhan se mukt hokar nirbhay ho jaata hai.

Santaanheeno ko santaan prapt hoti hai. Sab manorath purna hokar ant mein vaikunth dham ko jaata hai.

Jinhonay, pehle is vrat ko kiya hai, uske doosrey janam ki katha kehta hoo. Vridh Shatanand Brahman ne Sudama ka janam lekar mauksh paaya.

Ulkamukh naam ka raja Dashrath hokar vaikunth ko prapt hua.

Sadhu naam ke vaishya ne Mordhwaj bankar apne putra ko aare se cheerkar moksh prapt kiya.

Maharaj Tungadhwaj ne swayam-bhu hokar Bhagwan ke bhaktyukt karm kar moksh ko prapt kiya.


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Shri Satyanarayan Vrat Katha ( In English font )

दोस्तों हम आपके लिए Shri Laxmi Chalisa in hindi लेके आएं हैं। शुक्रवार का दिन माँ लक्ष्मी का दिन माना गया है और इस दिन Shri LAKSHMI CHALISA का पाठ और आरती करना काफी शुभ माना जाता है।

नीचे श्री Laxmi Chalisa हिंदी में दी गयी है।

Shri Laxmi Chalisa ( Ma Lakshmi Chalisa )

दोहा

मातु लक्ष्मी करि कृपा करो हृदय में वास।

मनोकामना सिद्ध कर पुरवहु मेरी आस॥

॥ चौपाई ॥

सिंधु सुता विष्णुप्रिये नत शिर बारंबार।

ऋद्धि सिद्धि मंगलप्रदे नत शिर बारंबार॥ टेक॥

सोरठा

यही मोर अरदास, हाथ जोड़ विनती करूं।

सब विधि करौ सुवास, जय जननि जगदंबिका॥

॥ चौपाई ॥

सिन्धु सुता मैं सुमिरौं तोही।

ज्ञान बुद्धि विद्या दो मोहि॥


तुम समान नहिं कोई उपकारी। सब विधि पुरबहु आस हमारी॥

जै जै जगत जननि जगदम्बा। सबके तुमही हो स्वलम्बा॥1||

तुम ही हो घट घट के वासी। विनती यही हमारी खासी॥

जग जननी जय सिन्धु कुमारी। दीनन की तुम हो हितकारी॥2 ||

विनवौं नित्य तुमहिं महारानी। कृपा करौ जग जननि भवानी।

केहि विधि स्तुति करौं तिहारी। सुधि लीजै अपराध बिसारी॥३||

कृपा दृष्टि चितवो मम ओरी। जगत जननि विनती सुन मोरी॥

ज्ञान बुद्धि जय सुख की दाता। संकट हरो हमारी माता॥4 ||

क्षीर सिंधु जब विष्णु मथायो। चौदह रत्न सिंधु में पायो॥

चौदह रत्न में तुम सुखरासी। सेवा कियो प्रभुहिं बनि दासी॥5 ||

जब जब जन्म जहां प्रभु लीन्हा। रूप बदल तहं सेवा कीन्हा॥

स्वयं विष्णु जब नर तनु धारा। लीन्हेउ अवधपुरी अवतारा॥6 ||

तब तुम प्रकट जनकपुर माहीं। सेवा कियो हृदय पुलकाहीं॥

अपनायो तोहि अन्तर्यामी। विश्व विदित त्रिभुवन की स्वामी॥7 ||

तुम सम प्रबल शक्ति नहिं आनी। कहं तक महिमा कहौं बखानी॥

मन क्रम वचन करै सेवकाई। मन- इच्छित वांछित फल पाई॥8 ||

तजि छल कपट और चतुराई। पूजहिं विविध भांति मन लाई॥

और हाल मैं कहौं बुझाई। जो यह पाठ करे मन लाई॥9 ||

ताको कोई कष्ट न होई। मन इच्छित फल पावै फल सोई॥

त्राहि- त्राहि जय दुःख निवारिणी। त्रिविध ताप भव बंधन हारिणि॥१०||

जो यह चालीसा पढ़े और पढ़ावे। इसे ध्यान लगाकर सुने सुनावै॥

ताको कोई न रोग सतावै। पुत्र आदि धन सम्पत्ति पावै।11 ||

पुत्र हीन और सम्पत्ति हीना। अन्धा बधिर कोढ़ी अति दीना॥

विप्र बोलाय कै पाठ करावै। शंका दिल में कभी न लावै॥12 ||

पाठ करावै दिन चालीसा। ता पर कृपा करैं गौरीसा॥

सुख सम्पत्ति बहुत सी पावै। कमी नहीं काहू की आवै॥13||

बारह मास करै जो पूजा। तेहि सम धन्य और नहिं दूजा॥

प्रतिदिन पाठ करै मन माहीं। उन सम कोई जग में नाहिं॥ 14 ||

बहु विधि क्या मैं करौं बड़ाई। लेय परीक्षा ध्यान लगाई॥

करि विश्वास करैं व्रत नेमा। होय सिद्ध उपजै उर प्रेमा॥15 ||

जय जय जय लक्ष्मी महारानी। सब में व्यापित जो गुण खानी॥

तुम्हरो तेज प्रबल जग माहीं। तुम सम कोउ दयाल कहूं नाहीं॥16 ||

मोहि अनाथ की सुधि अब लीजै। संकट काटि भक्ति मोहि दीजे॥

भूल चूक करी क्षमा हमारी। दर्शन दीजै दशा निहारी॥17 ||

बिन दरशन व्याकुल अधिकारी। तुमहिं अक्षत दुःख सहते भारी॥

नहिं मोहिं ज्ञान बुद्धि है तन में। सब जानत हो अपने मन में॥ 18 ||

रूप चतुर्भुज करके धारण। कष्ट मोर अब करहु निवारण॥

कहि प्रकार मैं करौं बड़ाई। ज्ञान बुद्धि मोहिं नहिं अधिकाई॥

रामदास अब कहाई पुकारी। करो दूर तुम विपति हमारी॥ 19 ||

।। दोहा ।।

त्राहि त्राहि दुःख हारिणी हरो बेगि सब त्रास।जयति जयति जय लक्ष्मी करो शत्रुन का नाश॥
रामदास धरि ध्यान नित विनय करत कर जोर।मातु लक्ष्मी दास पर करहु दया की कोर॥

।। इति लक्ष्मी चालीसा संपूर्णम।।


श्री लक्ष्मी सूक्तम पाठ - Shri Lakshmi Suktam – श्री लक्ष्मीसूक्तम्‌ पाठ

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Shri Laxmi Chalisa in hindi श्री लक्ष्‍मी चालीसा पाठ ( LAKSHMI CHALISA )

भगवान हनुमान आज भी पृथ्वी पर वास करते हैं। यह कहा जाता है कि हनुमान जी को चिरंजीव होने का आशीर्वाद प्राप्त है। हनुमानजी सूर्यपुत्र और भगवान शिव के अंशावतार है। Hanuman Jayanti 2021 जो की भगवान हनुमान जी का जन्म दिवस है , भगवान हनुमान के भक्तों के लिए एक बड़ा दिन है।

प्रतिवर्ष चैत्र मास की पूर्णिमा तिथि को हनुमान जयंती या हनुमान जन्म दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस बार हनुमान जयंती 27 अप्रैल 2021 को मनाई जाएगी।

इस तिथि के अलावा कई जगहों पर यह पर्व कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को भी मनाई जाती है।

इस दिन बजरंगबली की पूजा-अर्चना करने से मनुष्य को सभी तरह के कष्टों और भय से मुक्ति मिलती है। हनुमान जी अपने भक्तों की हर संकट से रक्षा करते हैं।  

हनुमान भक्त हनुमान जयंती का वर्षभर पूरे उत्साह से इंतजार करते हैं और बड़े भक्ती भाव के साथ मनाते हैं इस पावन पर्व को ।


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Hanuman Jayanti 2021 हनुमान जयंती 2021 का शुभ मुहूर्त:

चैत्र माह, शुक्ल पक्ष, पूर्णिमा तिथि

27 अप्रैल, मंगलवार

hanuman jayanti date

पूर्णिमा तिथि प्रारम्भ- 26 अप्रैल 2021, सोमवार, दोपहर 12 बजकर 44 मिनट से

पूर्णिमा तिथि का समापन- 27 अप्रैल 2021, मंगलवार, रात 9 बजकर 01 मिनट पर 

Hanuman Jayanti 2021 हनुमान जयंती 2021 का महत्व

हनुमान जयंती हिंदू धर्म का बहुत ही खास पर्व है। इस दिन मंगलवार भी पड़ रहा है। ऐसे में यह तिथि और भी महत्वपूर्ण हो जाती है।

इस दिन हनुमान जी की पूजा-अर्चना करने से व्यक्ति को जीवन में संकटों से मुक्ति और सुख शान्ति की प्राप्ति होती है।

अगर किसी व्यक्ति की कुंडली में शनि ग्रह का अशुभ प्रभाव होता है तो उसे विधिपूर्वक हनुमान जी की पूजा करनी चाहिए।

इससे शनि देव से जुड़ी समस्याएं भी दूर हो जाती हैं। साथ ही नकारात्मक ऊर्जा, भूत-प्रेत बाधा जैसी परेशानियों से भी मुक्ति मिल जाती है।

इस दिन हनुमान चालीसा और बजरंग बाण का पाठ अवश्य करना चाहिए। इससे हनुमान जी जल्दी प्रसन्न हो जाते हैं

Hanuman Jayanti - पूजन सामग्री

हनुमान जयंती के दिन भगवान हनुमान की पूजा विधि-विधान से करना शुभ माना जाता है।

इसीलिए पूजा के लिए पूजन सामग्री जैसे

  • एक चौकी,
  • एक लाल कपड़ा,
  • हनुमान जी की मूर्ति या फोटो,
  • अक्षत,
  • घी से भरा दीपक,
  • ताजे फूल,
  • चंदन या रोली,
  • गंगाजल,
  • तुलसी की पत्तियां,
  • धूप,
  • नैवेद्य (गुड और भुने चने )

भगवान हनुमान की पूजा विधि

हनुमान जी का जन्म सूर्योदय के समय हुआ था, इसलिए हनुमान जयंती के दिन ब्रह्म मुहूर्त में पूजा करना अच्छा माना गया है

घर की साफ-सफाई करने के बाद गंगाजल छिड़क कर घर को पवित्र कर लें। स्नान आदि के बाद ही हनुमान जी के मंदिर या घर पर पूजा करनी चाहिए।

इसके बाद हनुमान जी को ध्यान कर हाथ में गंगाजल लेकर व्रत का संकल्प करें।

एक चौकी पर अच्छी तरह से लाल कपड़ा बिछा दें।

चौकी पर हनुमान जी की मूर्ति या फोटो लगाएं।

ध्यान रखना चाहिए कि कोई भी पूजा भगवान गणेश को सर्वप्रथम नमन किए बिना पूरी नहीं होती है।

पूजा के दौरान हनुमान जी को लाल सिंदूर और चोला अर्पित करना चाहिए। मान्यता है कि चमेली का तेल अर्पित करने से हनुमान जी प्रसन्न होते हैं।

साथ ही सभी देवी-देवताओं को जल और पंचामृत अर्पित करें। अब अबीर, गुलाल, अक्षत, फूल, धूप-दीप और भोग आदि लगाकरउनकी वंदना करें।

इससे बाद दीपक और धूप जला कर आरती करे

हनुमान जयंती पर हनुमान चालीसा, सुंदरकांड और हनुमान आरती करना शुभ माना जाता है।.

विनम्र भाव से बजरंग बली की प्रार्थना करें और आरती के बाद प्रसाद वितरित करें।

पूजा विधि में कोई कमी न रह जाए इसका धयान रखना जरुरी है साथ ही पूजा करते समय विशेष सावधानी बरतनी चाहिए।

हनुमान जी की पूजा करते समय जाने-अनजाने की गई गलतियों के कारण बजरंग बलि जी नाराज ना हो इसका धयान रखे और इन कामों को करने से बचना चाहिए।

  • जो लोग हनुमान जी के उपासक हैं उन्हें हनुमान जयंती के दिन नमक का सेवन नहीं करना चाहिए।
  • इसके अलावा इस दिन जो वस्तु दान की जाती है उसका सेवन स्वयं नहीं करना चाहिए
  • हनुमान जयंती के दिन भूलकर भी मांस मदिरा का सेवन न करें।
  • इसके साथ ही इस दिन किसी भी प्रकार की नशीली चीजों का सेवन न करें। अन्यथा आपको हनुमान जी के क्रोध का भागी बनना पड़ सकता है।
  • हनुमान जयंती पर बिलकुल भी क्रोध न करें और न ही किसी को अपशब्द कहें।
  • इस बात का खास ध्यान रखें कि पूजा करते समय तो एकदम शांत स्वभाव रखें। यदि आपको किसी कारण से क्रोध आ रहा हो तो उस समय अशांत मन से हनुमान जी की पूजा न करें।
  • हनुमान जयंती पर पूजा करते समय कभी भी काले या फिर सफेद रंग के कपड़े नहीं पहनने चाहिए।
  • इस दिन लाल या पीले रंग के कपड़े पहनकर पूजा करनी चाहिए और हनुमान जी को लाल फूल, लाल वस्त्र अर्पित करने चाहिए। काले रंग के कपड़े पहनकर भूलकर भी पूजा न करें। इससे नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
  • हनुमान जी ब्रह्मचारी हैं इसलिए इनकी पूजा में करने वाले को भी ब्रह्मचार्य का पालन करना चाहिए।
  • माना जाता है कि स्त्रियों को पूजा करते समय हनुमान जी की मूर्ति को स्पर्श नहीं करना चाहिए।

Hanuman Jayanti 2021 - भगवान हनुमान मंत्र

हनुमान स्तुति मंत्र

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं। 
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।। 
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं। 
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।।

हनुमान स्त्रोत

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं।
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं।
रघुपतिप्रियभक्तं वातात्मजं नमामि।।
यत्र यत्र रघुनाथकीर्तनं तत्र तत्र कृतमस्तकांजलिम।
वाष्पवारिपरिपूर्णालोचनं मारुतिं नमत राक्षसान्तकम्।।

राशि के अनुसार मंत्र

मेष: ॐ सर्वदुखहराय नम:
वृषभ: ॐ कपिसेनानायक नम:
मिथुन: ॐ मनोजवाय नम:
कर्क: ॐ लक्ष्मणप्राणदात्रे नम:
सिंह : ॐ परशौर्य विनाशन नम:
कन्या : ॐ पंचवक्त्र नम:

तुला: ॐ सर्वग्रह विनाशिने नमः
वृश्चिक: ॐ सर्वबन्धविमोक्त्रे नम:
धनु: ॐ चिरंजीविते नम:
मकर: ॐ सुरार्चिते नम:
कुंभ: ॐ वज्रकाय नम:
मीन: ॐ कामरूपिणे नम:


भीड़ पड़ी तेरे भक्तों पर बजरंगी, सुन लो अर्ज़ अब तो दाता मेरी।
हे महावीर अब तो दर्शन दे दो., पूरी कर दो तुम कामना मेरी।


Hanuman Ji Ki Aarti हनुमान जी की आरती

आरती कीजै हनुमान लला की। दुष्ट दलन रघुनाथ कला की।।

जाके बल से गिरिवर कांपे। रोग दोष जाके निकट न झांके।।

अंजनि पुत्र महाबलदायी। संतान के प्रभु सदा सहाई।

दे बीरा रघुनाथ पठाए। लंका जारी सिया सुध लाए।

लंका सो कोट समुद्र सी खाई। जात पवनसुत बार न लाई।

लंका जारी असुर संहारे। सियारामजी के काज संवारे।

लक्ष्मण मूर्छित पड़े सकारे। आणि संजीवन प्राण उबारे।पैठी पताल तोरि जमकारे।

अहिरावण की भुजा उखाड़े। बाएं भुजा असुर दल मारे। दाहिने भुजा संतजन तारे।सुर-नर-मुनि जन आरती उतारे।

जै जै जै हनुमान उचारे।कंचन थार कपूर लौ छाई। आरती करत अंजना माई।लंकविध्वंस कीन्ह रघुराई।

तुलसीदास प्रभु कीरति गाई। जो हनुमानजी की आरती गावै।

बसी बैकुंठ परमपद पावै।आरती कीजै हनुमान लला की। दुष्ट दलन रघुनाथ कला की।


राम का हूं भक्त मैं रूद्र का अवतार हूं, अंजनी का लाल हूं मैं दुर्जनों का काल हूं
साधुजन के साथ हूं मैं निर्बलो की आस हूं, सद्गुणों का मान हूं मैं हां मैं वीर हनुमान हूं
हनुमान जयंती की सभी भक्तों को प्रणाम

JAI BAJRANG BALI KI !

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Navratri Day 8 - Ma Gauri Aarti: माँ दुर्गाजी की आठवीं शक्ति का नाम महागौरी है। नवरात्री के आठवें दिन महागौरी की उपासना का विधान है।

इनकी उपासना महाफलदायी है। जो भक्तगण सच्चे मन से इनकी स्तुति वंदना करते है उन्हें  अक्षय पुण्यों की प्राप्ति होती है

मां गौरी का रूप बेहद सुन्दर और मोहक है। इनका वर्ण गौर है इनकी आयु आठ वर्ष की मानी गयी है माँ के समस्त वस्त्र और गहने श्वेत है महागौरी की चार भुजाएं हैं।

इनका वाहन वृषभ है। इनके दाहिने हाथ में अभय मुद्रा और नीचे वाले दाहिने हाथ में त्रिशूल है। ऊपरवाले बाएं हाथ में डमरू और नीचे के बाएं हाथ में वर-मुद्रा हैं। इनकी मुद्रा अत्यंत शांत है।

Navratri Day 8 - Ma Gauri Shlok - माँ गौरी श्लोक

महागौरी की आराधना निम्न मंत्र से करने से शुभ फल की प्राप्त होते हैं

वन्दे वांछित कामार्थे चन्द्रार्घकृत शेखराम्।

सिंहरूढ़ा चतुर्भुजा महागौरी यशस्वनीम्॥

श्वेते वृषे समारुढा श्वेताम्बरधरा शुचिः | महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा ||

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ गौरी रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

Navratri Day 8 Katha - Ma Gauri Katha - माँ गौरी की कथा

पौराणिक कथा के अनुसार माँ पारवती ने भगवान शिव को पति के रूप पाने के लिए कठोर तपस्या की थी इस कठोर तपस्या से उनके शरीर का रंग कला पड़ गया।

देवी की ऐसी कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान उन्हें स्वीकार किया और उनके शरीर को पवित्र गंगाजल से धोकर कांतिमान बना दिया , और इस तरह से माँ गौरी की काया अत्यंत कांतिमान हो उठी ,तभी से इनका नाम गौरी पड़ा।

देवी के इस रूप की प्रार्थना करते हुए देव और ऋषिगण कहते हैं “सर्वमंगल मंग्ल्ये, शिवे सर्वार्थ साधिके. शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोस्तुते..”

एक अन्य कथा भी प्रचलित है इसके जिसके अनुसार, एक सिंह काफी भूखा था, वह भोजन की तलाश में वहां पहुंचा जहां देवी उमा तपस्या कर रही होती हैं।

देवी को देखकर सिंह की भूख बढ़ गयी परंतु वह देवी के तपस्या से उठने का इंतजार करते हुए वहीं बैठ गया। इस इंतजार में वह काफी कमज़ोर हो गया।

देवी जब तप से उठी तो सिंह की दशा देखकर उन्हें उस पर बहुत दया आती है और माँ उसे अपना सवारी बना लेती हैं क्योंकि एक प्रकार से उसने भी तपस्या की थी।

इसलिए देवी गौरी का वाहन बैल और सिंह दोनों ही हैं।

Navratri Day 8 pooja vidhi - Ma Gauri ki Pooja Vidhi - माँ गौरी की पूजन विधि

अष्टमी के दिन महिलाएं अपने सुहाग के लिए देवी मां को चुनरी और श्रृंगार के वस्तुए भेंट करती हैं उनसे अपने पति और घर परिवार सुख सौभयग्य की याचना करती हैं

Ma Gauri ki Pooja ka Mahtwa - माँ गौरी की पूजा का महत्व

माँ महागौरी का ध्यान, स्मरण, पूजन-आराधना भक्तों के लिए  बड़ा ही शुभ और कल्याणकारी  है मां महागौरी की उपासना से भक्तों के सारे कष्ट दूर होते है अतः इनके चरणों में अपना शीश झुका कर अपने लिए सुख-समृद्धि की   प्राथना करे।

महागौरी का पूजन-अर्चन, उपासना-आराधना कल्याणकारी है। इनकी कृपा से अलौकिक सिद्धियां भी प्राप्त होती हैं।

महागौरी का मंत्र  

  • मां महागौरी मंत्रः ओम महागौरियेः नमः, इस मंत्र का 108 बार जाप करें। 
  • आठवें दिन का रंगः गुलाबी रंग 
  • आठवें दिन का प्रसादः मिठाई जैसे मलाई बर्फी, पेडा, रसमलाई, एवं दूध व फल से निर्मित मिठाई 

Ma Gauri Aarti: नवरात्रि के सातवें दिन मां महागौरी की आरती

जय महागौरी जगत की माया ।
जया उमा भवानी जय महामाया ।।
 
हरिद्वार कनखल के पासा ।
महागौरी तेरा वहां निवासा ।।
 
चंद्रकली ओर ममता अंबे ।
जय शक्ति जय जय मां जगदंबे ।।
 
भीमा देवी विमला माता ।
कौशिकी देवी जग विख्याता ।।
 
हिमाचल के घर गौरी रूप तेरा ।
महाकाली दुर्गा है स्वरूप तेरा ।।
 
सती ‘सत’ हवन कुंड में था जलाया ।
उसी धुएं ने रूप काली बनाया ।।
 
बना धर्म सिंह जो सवारी में आया ।
तो शंकर ने त्रिशूल अपना दिखाया ।।
 
तभी मां ने महागौरी नाम पाया ।
शरण आनेवाले का संकट मिटाया ।।
 
शनिवार को तेरी पूजा जो करता ।
मां बिगड़ा हुआ काम उसका सुधरता ।।
 
भक्त बोलो तो सोच तुम क्या रहे हो ।
महागौरी मां तेरी हरदम ही जय हो ।।


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Navratri Day 8 – Ma Gauri Aarti: मां दुर्गा का आठवां स्वरुप माँ गौरी

Powerful Durga Mantra - It is said that there is great connection of energy in Ma Durga's worship. Worshiping the Goddess relieves you of all problems. Here are some mantras of worshiping the Goddess in this article, which can give you peace of mind and energy.

मां दुर्गा के प्रभावशाली मंत्र : mytempletrips पे आपका स्वागत है और दोस्तों नीचे दिए गए माँ दुर्गा के मन्त्रों को जरूर ध्यान से जाप करें। ये मंत्र काफी प्रभावशाली है और माँ दुर्गा के ये मंत्र दुखों का नाश करने वाले हैं।

रोग नाश करने वाला मंत्र (Powerful Durga Mantra)

रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान सकलानभीष्टान्।

त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता हाश्रयतां प्रयान्ति।

अर्थातः देवी! तुम प्रसन्न होने पर सब रोगों को नष्ट कर देती हो और कुपित होने पर मनोवांछित सभी कामनाओं का नाश कर देती हो। जो लोग तुम्हारी शरण में जा चुके है। उनको विपत्ति तो आती ही नहीं। तुम्हारी शरण में गए हुए मनुष्य दूसरों को शरण देने वाले हो जाते हैं।

दु:ख-दारिद्र नाश करने वाला मंत्र (Powerful Durga Mantra)

दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तो:। स्वस्थै स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।।

द्रारिद्र दु:ख भयहारिणि का त्वदन्या। सर्वोपकारकारणाय सदाह्यद्र्रचिता।।

ऐश्वर्य, सौभाग्य, आरोग्य, संपदा प्राप्ति एवं शत्रु भय मुक्ति-मोक्ष प्रदान करने वाला मंत्र

ऐश्वर्य यत्प्रसादेन सौभाग्य-आरोग्य सम्पदः।

शत्रु हानि परो मोक्षः स्तुयते सान किं जनै॥

भय नाशक दुर्गा मंत्र (Powerful Durga Mantra)

सर्व स्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्ति समन्विते,

भयेभ्यास्त्रहिनो देवी दुर्गे देवी नमोस्तुते।

स्वप्न में कार्य सिद्धि-असिद्धि जानने के लिए

दुर्गे देवि नमस्तुभ्यं सर्वकामार्थ साधिके।

मम सिद्घिमसिद्घिं वा स्वप्ने सर्व प्रदर्शय।।

अर्थातः शरणागत की पीड़ा दूर करने वाली देवी हम पर प्रसन्न होओ। संपूर्ण जगत माता प्रसन्न होओ। विश्वेश्वरी! विश्व की रक्षा करो। देवी! तुम्ही चराचर जगत की अधिश्वरी हो।

मां के कल्याणकारी स्वरूप का वर्णन

सृष्टिस्थिति विनाशानां शक्तिभूते सनातनि।

गुणाश्रये गुणमये नारायणि! नमोऽस्तुते॥

अर्थातः हे देवी नारायणी! तुम सब प्रकार का मंगल प्रदान करने वाली मंगलमयी हो। कल्याणदायिनी शिवा हो। सब पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाली शरणागतवत्सला, तीन नेत्रों वाली एवं गौरी हो, तुम्हें नमस्कार है। तुम सृष्टि पालन और संहार की शक्तिभूता सनातनी देवी, गुणों का आधार तथा सर्वगुणमयी हो। नारायणी! तुम्हें नमस्कार है।



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